कबीर दास के अनुसार आत्मा का स्वरूप
आत्मा का स्वरूप पर विचार भारतीय दर्शन धार्मिक ग्रंथों और आध्यात्मिक परंपराओं में अत्यंत महत्वपूर्ण है। आत्मा को हर व्यक्ति के भीतर स्थित एक शाश्वत,ल अविनाशी और आध्यात्मिक सत्ता के रूप में माना जाता है जो न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। इसे शुद्ध चेतना ज्ञान और अनंत आनंद का स्रोत माना जाता है जो शरीर और मन से परे है।
आत्मा की परिभाषा-
आत्मा का शाब्दिक अर्थ है स्वयं या स्व। भारतीय दार्शनिक परंपराओं में आत्मा को आत्मन् कहा गया है जो व्यक्ति का सच्चा स्वरूप है। यह शरीर मन और इंद्रियों से परे है और केवल आत्मज्ञान के माध्यम से इसे जाना जा सकता है। आत्मा को शाश्वत अदृश्य अजर-अमर और अविनाशी माना जाता है।
कबीर दास जी के दर्शन के अनुसार-
कबीर दास 15वीं सदी के महान संत और भक्त कवि थे जिन्होंने भारतीय भक्ति आंदोलन को एक नया दृष्टिकोण दिया। उनकी रचनाओं में आत्मा का विषय अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके अनुसार आत्मा ही परमात्मा का अंश है और सांसारिक जीवन का उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से मिलाना है। कबीर का दर्शन अद्वैतवादी है जो आत्मा और परमात्मा की एकता को मान्यता देता है। उनका मानना था कि आत्मा परमात्मा से कभी अलग नहीं है परंतु माया अर्थात सांसारिक भ्रम और अज्ञानता के कारण यह बंधनों में जकड़ी रहती है।
1 आत्मा का शाश्वत और अविनाशी स्वरूप-
आत्मा एक शाश्वत अविनाशी और अचेतन ऊर्जा या शक्ति है जिसे कई धर्मों और दार्शनिक विचार धाराओं में जीवन का मूल तत्व माना जाता है। आत्मा के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण हैं लेकिन इसे सामान्य रूप से एक ऐसी सत्ता या शक्ति माना जाता है जो शरीर के नाश होने के बाद भी अस्तित्व में रहती है।
कबीर दास जी के अनुसार आत्मा शाश्वत है जिसका न तो कोई जन्म है न मरण। यह अनादि और अनंत है। आत्मा पर संसारिक परिवर्तन और परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कबीर मानते हैं कि आत्मा अजर-अमर है और शरीर केवल इसका एक अस्थायी निवास स्थान है।
उनके विचार से मृत्यु केवल शरीर की होती है आत्मा की नहीं। आत्मा मृत्यु के बाद भी जीवित रहती है और परमात्मा से मिलन की यात्रा पर आगे बढ़ती है। कबीर के अनुसार आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भिन्नता नहीं है बल्कि दोनों एक ही तत्व हैं।
कबीर दास जी कहते हैं-
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।
इसमें कबीर यह दर्शाते हैं कि संसार का चक्र निरंतर चलता रहता है और उसमें जीवात्मा उस परमात्मा का अंश होने के बावजूद माया के बंधनों में फंस जाता है। परंतु आत्मा की अविनाशी प्रकृति को पहचानने वाला व्यक्ति इस संसार के जाल से बच सकता है।
2 आत्मा और परमात्मा की एकता-
परमात्मा का अर्थ है- सर्वोच्च आत्मा या सर्वशक्तिमान ईश्वर। यह शब्द संस्कृत से लिया गया है जिसमें परम का मतलब है सर्वोच्च और आत्मा का अर्थ है आध्यात्मिक चेतना या जीवात्मा। परमात्मा को विभिन्न धर्मों और दार्शनिक विचारधाराओं में सर्वोच्च सत्ता ब्रह्मांड का निर्माता संहारक और सारे जीवन का स्रोत माना जाता है।
कबीर दास के भक्ति दर्शन का केंद्र बिंदु आत्मा और परमात्मा की अद्वैतवादी एकता है। वे आत्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं मानते। उनके अनुसार आत्मा का वास्तविक स्वरूप परमात्मा से अलग नहीं है यह केवल अज्ञानता और माया के कारण भ्रमित हो जाती है। जब आत्मा सांसारिक मोह-माया और भ्रम से मुक्त होती है तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है और परमात्मा से एकाकार हो जाती है।
कबीर का मानना था कि परमात्मा को किसी बाहरी आडंबर या धार्मिक कर्मकांड के माध्यम से नहीं पाया जा सकता बल्कि वह आत्मा के भीतर ही है। आत्मा की शुद्धि और आंतरिक साधना के द्वारा ही परमात्मा से मिलन संभव है।
कबीर दास जी कहते हैं-
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे वन माहि।
ऐसे घट घट राम है, दुनिया देखे नाहि।
यहां कबीर दास जी यह बताते हैं कि जिस प्रकार कस्तूरी हिरण के नाभि में होती है परंतु वह उसे जंगल में ढूंढता है वैसे ही परमात्मा हर जीव के भीतर है लेकिन जीव उसे बाहरी संसार में ढूंढता रहता है। आत्मा की पहचान के लिए भीतर की ओर देखना जरूरी है।
3 माया और आत्मा का बंधन-
माया का अर्थ है भ्रम या आभासी वास्तविकता जो व्यक्ति को सच्चाई से दूर करती है और उसे सांसारिक वस्तुओं इच्छाओं और भावनाओं के जाल में फंसाती है। माया का संबंध भौतिक संसार और उसके अनुभवों से है जो अस्थायी होते हैं और आत्मा को परमात्मा या सच्चे ज्ञान से दूर रखते हैं। माया का विचार मुख्य रूप से हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और अन्य भारतीय दर्शनों में प्रचलित है विशेषकर अद्वैत वेदांत और भक्ति साहित्य में इसका विशेष महत्व है।
कबीर दास जी के अनुसार आत्मा परमात्मा का अंश होते हुए भी सांसारिक मोह-माया और अज्ञानता के कारण अपने शाश्वत स्वरूप को भूल जाती है। माया संसार का वह भ्रम है जो आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप से दूर करता है और उसे शरीर रिश्ते धन-दौलत और भौतिक वस्तुओं के पीछे भटकाता है। माया के बंधन में फंसी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र में फंस जाती है और इस चक्र से मुक्त होने के लिए उसे सत्य भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर चलना होता है।
कबीर दास जी कहते हैं-
माया मरी न मन मरा, मरि-मरि गया शरीर। आसा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।।
यहां कबीर जी बताते हैं कि जब तक माया का बंधन जीव पर है तब तक वह वास्तविक मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। शरीर मर जाता है परंतु मन इच्छाएं और तृष्णा तब तक जीवित रहती हैं जब तक आत्मा माया से मुक्त नहीं होती।
4 आत्मा की शुद्धि और मोक्ष-
कबीर जी के अनुसार आत्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है जो परमात्मा से मिलन द्वारा प्राप्त होता है। मोक्ष का अर्थ आत्मा का पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होना और परमात्मा में विलीन होना है। आत्मा की शुद्धि भक्ति साधना और सत्य के मार्ग पर चलकर ही संभव है। कबीर भक्ति के मार्ग को सबसे सरल और प्रभावी मानते हैं जिससे आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहचानकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
कबीर दास जी कहते हैं-
मन मूरख ते क्यों कहूं, समझे नहीं निहाल।
धन माया लेया मिल कहूं, सच्चा नाहि माल।
यहां कबीर जी समझाते हैं कि सच्चा धन आत्मा का परमात्मा से मिलन है परंतु माया के कारण मनुष्य इसे पहचान नहीं पाता और सांसारिक वस्तुओं में खो जाता है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मा को इस मोह-माया से ऊपर उठना होगा।
5 भक्ति और आत्मा की शुद्धि का साधन-
भक्ति का अर्थ है श्रद्धा प्रेम और समर्पण के साथ भगवान या ईश्वर की उपासना करना। यह एक आध्यात्मिक मार्ग है जिसमें भक्त अपने इष्ट देव या परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम प्रकट करता है। भक्ति मार्ग व्यक्ति को ईश्वर के साथ व्यक्तिगत और गहरे संबंध स्थापित करने का अवसर देता है जहां प्रेम और विश्वास के आधार पर ईश्वर की आराधना की जाती है।
कबीर के अनुसार आत्मा की शुद्धि के लिए सबसे प्रभावी साधन भक्ति है। उन्होंने किसी विशेष धार्मिक रीति-रिवाज या कर्मकांड को आत्मा की मुक्ति के लिए अनिवार्य नहीं माना। उनके अनुसार ईश्वर या परमात्मा को पाने के लिए केवल प्रेम भक्ति और सच्चे हृदय से साधना की आवश्यकता है।
कबीर की भक्ति में सहजता सादगी और एक गहरा आंतरिक अनुभव है जिसमें बाहरी आडंबर या धार्मिक रूढ़ियों का कोई स्थान नहीं है। वे बार-बार यह कहते हैं कि आत्मा का परमात्मा से मिलन केवल ईमानदारी और सच्ची भक्ति से संभव है।
कबीर दास जी कहते हैं-
कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
यह दोहा कबीर जी के निष्काम और नि:स्वार्थ भक्ति के मार्ग को दर्शाता है। वे सभी से प्रेम और सद्भाव की अपेक्षा रखते हैं और यही आत्मा की शुद्धि का मार्ग है।
निष्कर्ष-
कबीर दास जी का आत्मा के प्रति दृष्टिकोण हमें यह सिखाता है कि आत्मा शाश्वत और परमात्मा का अंश है जो संसार के बंधनों में बंधी होती है। माया और अज्ञानता के कारण आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाती है लेकिन भक्ति और आंतरिक साधना से वह परमात्मा से मिलन कर सकती है। कबीर के विचार हमें यह बताते हैं कि आत्मा और परमात्मा में कोई भिन्नता नहीं है दोनों एक ही तत्व के रूप हैं।
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com
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