6 अक्टू॰ 2024

भारतीय दर्शन के अनुसार धर्म एवं दर्शन क्या है?


भारतीय दर्शन के अनुसार धर्म एवं दर्शन क्या है?


धर्म-

      धर्म शब्द संस्कृत के धृ धातु से  बना  है जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वह धर्म है। धर्म के लिए अंग्रेजी शब्द रिलीजन का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के रिलीजिओ ओनिस से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है- पुनः बाँधना। इस प्रकार रिलीजन शब्द एकता और सामंजस्य का तत्व है। धर्म वह सर्वांगपूर्ण अभिवृत्ति है जो किसी समाज-समादृत आदर्शपूर्ण विषय के प्रति आत्मसमर्पण एवं अन्तर्बद्धता  हेतु व्यक्ति को सम्पूर्ण जगत् के प्रति अभिमुख करती है। यह परिभाषा धर्म के मुख्य तीन लक्षणों की ओर संकेत करती है अभिवृत्ति आदर्शपूर्ण विषय तथा सर्वांगपूर्णता । 

अभिवृत्ति मानव प्राणी के अन्दर एक रूप से सोचने-विचारने एवं सक्रिय होने का स्थायी भाव है।

आदर्शपूर्ण विषय आराध्य देवता मूल्य तथा कोई सामूहिक पवित्र कहलाने वाले पात्र ग्रन्थ आदि हैं। ईश्वर-राम-रहीम ईसा-मूसा निर्वाण या मोक्ष आदि आदर्शपूर्ण विषय के उदाहरण हैं। इसी आदर्शपूर्ण विषय के प्रति लोगों में अटूट आस्था होती है और इसी आस्था हेतु मनुष्य में सर्वांगपूर्ण अभिवृत्ति पैदा होती है।

सर्वांगपूर्णता में मनुष्य की आन्तरिक भावना क्रियावृत्ति तथा संज्ञा तीनों प्रक्रियाएँ एक साथ जागरूक हो सकती हैं। सर्वांगपूर्णता में समस्त विश्व के प्रति एक दृष्टिकोण जागृत होता है।

धर्म में जो अभिवृत्ति आदर्शपूर्ण विषय तथा सर्वांगपूर्णता है उन्हें सत्य-असत्य नहीं कहा जा सकता अर्थात् उन्हें अटूट श्रद्धा के साथ ज्यों का त्यों माना जाना चाहिए। कोई भी धर्म हिन्दू हो या मुस्लिम धर्म ईसाई धर्म हो या सिक्ख धर्म तर्क-वितर्क की अनुमति नहीं देता है। इस प्रकार धर्म में अपनी विषय-वस्तु के प्रति बहुत अधिक आस्था आत्मबद्धता और आत्मसमर्पण है।

धर्म व दर्शन में अन्तर-

                            धर्म और दर्शन अध्ययन की दो पृथक-पृथक विद्याएँ हैं। दर्शन का आधार बुद्धि है जो ज्ञान के विशिष्ट क्षेत्र में आलोचनात्मक दृष्टिकोण है जबकि धर्म का आधार अति प्राकृतिक अति मानवीय या दैविक शक्ति के प्रति आस्था या भक्तिभाव है। दर्शन धर्म से भिन्न एक खोजपूर्ण प्रयास है जिसमें आलोचना समीक्षा विश्लेषण तथा समन्वय आदि सभी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दर्शन में भी एक विश्व-दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाता है जिसकी  समीक्षा आलोचना की जा सकती है पर धर्म  आधारित जीव जगत् विषयक दृष्टिकोण आलोचना अथवा समीक्षा से परे हैं। उसके प्रति अटूट आस्था होनी चाहिए।

धर्म में बौद्धिक विवेचना निरर्थक है जबकि दर्शन का वह प्राण है। धर्म में श्रद्धालु की आवश्यकता है और दर्शन में जिज्ञासु की जो प्रश्नात्मक शैली का प्रयोग कर सत्य-असत्य का निर्णय करे।

दर्शन और धर्म में कुछ विषय सामान्य हो सकते हैं जैसे ईश्वर आत्मा जगत किन्तु उनका स्थान दोनों से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए धर्म में ईश्वर का स्थान सर्वोपरि है और ईश्वर की किसी भी प्रकार की आलोचना किए बिना उसमें श्रद्धा आस्था रखना परमावश्यक है जबकि दर्शन का वह अन्य विषयों की भाँति एक अध्ययन बिन्दु है।

दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व, स्वरूप तथा स्थान का बौद्धिक विवेचन मिलेगा। दर्शन में ईश्वर, आत्मा आदि है या नहीं इसका निर्णय होता, है, जबकि धर्म में ऐमा विवेचन निदनीय माना जाएगा।

धर्म पर आधारित किसी समुदाय का निर्माण होता है जबकि दर्शन समुदाय के समूचे क्रिया-कलापों का विश्लेषण करता है।

धर्म में कल्याणकारी भावना का समावेश होता है। दर्शन में यह आवश्यक नहीं है।

इस प्रकार धर्म एवं दर्शन के विषय सामान्य होते हुए भी अपना एक दूसरे से स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं।

धर्म और दर्शन में सम्बन्ध-

धर्म और दर्शनशास्त्र के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि हम धर्म की परिभाषा इस प्रकार करें कि यह उन आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करने का यत्न है जो मनुष्य की आत्मा में नित्य वर्तमान है परन्तु कभी-कभी प्रच्छन्न रहते हैं तो इन मूल्यों की परीक्षा उनके स्रोत तथा उनके वस्तुनिष्ठ समकक्ष मूल्यों को निर्धारित करने का कार्य दर्शन शास्त्र करता है।

फिर यदि धर्म विश्व की दैवी शक्तियों के प्रति आत्मा की अनुक्रिया है तो दर्शनशास्त्र के द्वारा हमें इन दैवी शक्तियों की जानकारी मिलती है। उनका कोई अस्तित्व है या नहीं यह स्पष्ट किया जाता है।

जैसा कि किसी लेखक ने कहा है यदि धार्मिक अभिवृत्ति के लिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि जगत की वस्तुओं से परे कोई ऐसी शक्ति अथवा तत्व है जो हमारे स्वभाव से मेल रखता है जिसे भावों के दुरुपयोग के बिना व्यक्तिगत कहा जा सकता है तो दर्शनशास्त्र यह निर्धारित करने का प्रयत्न करता है कि क्या विज्ञान और तत्त्व मीमांसा में कोई ऐसी बात है जो हमें इस तरह की व्यक्तिगत शक्ति में विश्वास से रोकती है और यह विश्वास करने के लिए विज्ञान अथवा तत्त्वमीमांसा में कोई कारण है यदि है तो वह क्या है?

इस प्रकार दर्शन न केवल मानव जीवन का वरन धर्म का भी अंग बन गया है। दोनों में केवल सूक्ष्म अन्तर यह है कि जहाँ दर्शन केवल विचार पक्ष तक सीमित है वहीं धर्म उसके क्रिया पक्ष को महत्त्व देता है।

धर्म जिस तथ्य का प्रतिपादन प्रत्यभिज्ञा या अनुभूति के आधार पर करता है वहीं दर्शन उस अनुभवात्मक पक्ष पर युक्तिसंगत विचार करके तार्किक व बौद्धिक बना देता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धर्म दर्शन का प्रयोगात्मक विज्ञान है।

दर्शन और विज्ञान-

विज्ञान -

विज्ञान के लिए अंग्रेजी शब्द साइंस का प्रयोग किया जाता है। साइंस शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा में साईटिया में प्रयुक्त  सिओ व साई रे से हुई है जिसका अर्थ होता है ज्ञान।

वैज्ञानिक ज्ञान से तात्पर्य उस ज्ञान से है जो  निश्चित यथार्थ और पूर्ण रूप से व्यवस्थित होता है। विज्ञान अनुभव के तथ्यों का सरलतम भाषा में पूर्ण एवं संगत वर्णन है।

किसी भी घटना समूह का अध्ययन करने में वैज्ञानिक पहले तथ्यों को एकत्र करता है उनका विश्लेषण और वर्गीकरण करता है उन परिस्थितियों का जिनमें वे घटती है अर्थात् इनके कारणों का अध्ययन करता है। उनके व्यवहार के  रूप तरीकों का निर्धारण करता है तथा इन सब बातों का एक व्यवस्थित लेखा तैयार करता है। अतः विज्ञान का कार्य निम्न प्रकार से होता है-

1 तथ्यों को एकत्र करना

2 तथ्यों का वर्णन

अ - परिभाषा और सामान्य दर्शन

ब - विश्लेषण

स - वर्गीकरण

3 तथ्यों की व्याख्या

अ- कारणों (नियत पूर्ववर्तियों) का निर्धारण।

ब- नियमों (व्यवहार की एकरूपताओं) को सूत्रबद्ध करना।

दर्शन और विज्ञान का सम्बन्ध-

विज्ञान और दर्शनशास्त्र का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है। बिना निरीक्षण और परीक्षण के पहले से ही बने बनाए सिद्धान्तों का आदर उत्तरोत्तर कम हो रहा है। इसलिए वर्तमान समय में दर्शनशास्त्र सम्प्रत्ययों अर्थों और मूल्यों के आलोचनात्मक विश्लेषण की दिशा में मुड़ रहा है।

दर्शनशास्त्र निश्चित यथार्थ और सुव्यवस्थित ज्ञान की प्राप्ति में विज्ञान के समान है। दर्शनशास्त्र भी जगत् के विषय में ज्ञान प्राप्त करना चाहता है इसलिए विज्ञान और दर्शन दोनों का उद्देश्य एक जैसा प्रतीत होता है। विज्ञान की तार्किक प्रणालियों का प्रयोग दर्शन में प्रायः किया जाता है। दर्शत में प्रयुक्त निगमनात्मक पद्धति भी वैज्ञानिक नियम पद्धतियों के ऊपर स्थापित है। दर्शन के सम्बन्ध में एक प्रचलित धारणा यह है कि दर्शन विज्ञानों का संश्लेषण है। दर्शन की उत्पत्ति विभिन्न विज्ञानों द्वारा दिये हुए ज्ञानों के एक समष्टि रूप में मिश्रित होने से होती है। दर्शन विज्ञान की धारणाओ का आलोचनात्मक विश्लेषण करता है। इसी प्रकार विज्ञान को दर्शन की सहायता की आवश्यकता है। विज्ञान की पद्धति और उसके स्वरूप के विषय में कई प्रश्न होते हैं जिनका अन्वेषण दर्शन करता है। 1-वैज्ञानिक अन्वेषण में आगमनात्मक एवं निगमनात्मक अनुमान का क्या स्थान है? 

उसके लिए किसी प्रकार की पूर्व मान्यताएँ आवश्यक है या नहीं ? 

2- क्या ऐसे भी कुछ सम्प्रत्यय हैं जो एक से अधिक विज्ञानों के लिए आधारिक हैं? 

3- वैज्ञानिक सिद्धान्त का क्या स्वरूप है? 

4- सिद्धान्त और तथ्य में क्या सम्बन्ध है? 

5- वैज्ञानिक नियम की क्या विशेषताएँ हैं? 

6- विज्ञान और सामान्य बोध में क्या सम्बन्ध हैं?

दर्शन में विज्ञान के सम्प्रत्ययात्मक प्रश्नों का अन्वेषण होता है। विज्ञान और दर्शन में अन्तर

अ- विज्ञान वर्णन करता है जबकि दर्शन अर्थ निरूपण करता है।

ब- विज्ञान का कार्य तथ्यों को एकत्र करना-तथ्यों का वर्णन करना तथा तथ्यों की व्याख्या करना है जबकि दर्शन वस्तुओं की अन्तिम व्याख्या देने का प्रयत्न करता है, वह उनके प्रथम कारण प्रेरक कारण उनके प्रयोजन उनके अर्थ और उनके मूल्य की भी व्याख्या करता है।

स-  विज्ञान अंशतः एकीकृत ज्ञान हैजबकि दर्शन पूर्णतया एकीकृत ज्ञान है। 

द- विज्ञान का विषय साक्षात् अस्तित्वधातु पदार्थ है जबकि दर्शन का विषय अस्तित्ववान पदार्थ नहीं है।

य- विज्ञान का लक्ष्य वस्तुओं की अस्तित्व मूलक व्याख्या करना कारण मूलक व्याख्या देना है जबकि दर्शन का लक्ष्य अस्तित्वमूलक व्याख्या देना नहीं वरन् विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण तथा मूल्यांकन करना है।

लेखक- बद्री लाल गुर्जर

ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com

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