11 अग॰ 2024

निष्काम कर्म


 निष्काम कर्म


निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के निः + काम से हुई है जिसका अर्थ है बिना फल के तथा कर्म का अर्थ है क्रियाशील होना। अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना अर्थात् परिणाम की आशा किए बिना कर्म करते रहना। निष्काम शब्द का विपरीत सकाम है जिसका अर्थ है फल प्राप्ति की कामना के साथ। सकाम कर्म में मनुष्य या कर्ता कर्म के सम्पादन में परिणाम प्राप्ति की भावना अपने मन में रखता है। निष्काम कर्म में कर्म करने का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता है। कर्म करना तो मानव स्वभाव है। महत्वपूर्ण एवं सामयिक प्रश्न है कि मनुष्य को साध्य की प्राप्ति के लिए कर्म प्राप्त कर लेने पर उसका कर्म वहीं समाप्त हो जाता है।


मनुष्य जब इस जीवन में रहता है तब कर्म करना उसका स्वभाव होता है। किसी कर्म को किए बिना वह रह ही नहीं सकता है। मनुष्य के शरीर ग्रहण करने का अर्थ है उसका क्रियाशील होना अर्थात् किसी न किसी प्रकार के कर्म को करते रहना। क्रियाशीलता के अभाव का अर्थ है. मानव शरीर का विनष्ट होना। इस विश्व में सभी प्राणी कोई न कोई कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। कर्म करना प्राणियों का प्राकृतिक गुण है। इस प्रकार अनैच्छिक रूप से भी प्राकृतिक गुण के प्रयोजन से सभी प्राणियों को क्रियाशील होकर कर्म करना पड़ता है। कर्म मनुष्य के लिए अनिवार्य  है।


गीता का निष्काम कर्म भक्ति मिश्रित है। निष्काम कर्मयोगी का साध्य ईश्वर होता है। सभी कर्म ईश्वर के लिए ही किए जाते हैं। गीता के अनुसार मनुष्य को सतत् कर्म करना चाहिए, लेकिन कर्म के फल में इच्छा नहीं रखनी चाहिए। सभी कर्म में पाप एवं पुण्य मिश्रित हैं। सतत् कर्म करने से पाप-पुण्य दोनों का फल मिलेगा। पुण्य का फल शुभ होता है तथा पाप का फल अशुभ होता है। शुभ एवं अशुभ दोनों ही आत्मा के बन्धन हैं। गीता में कहा गया है कि अगर हम अपने किए हुए कर्मों में आसक्त न हों तो उसका बन्धनात्मक प्रभाव नहीं होगा अर्थात् आत्मा मुक्त रहेगी। आसक्ति का परित्याग कर कर्मचक्र को चलते रहने देना चाहिए। कर्म करने में कर्ता को किसी भी संस्कार से आसक्ति नहीं होनी चाहिए। कर्म की स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने वाले व्यक्ति को फल की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। चूंकि वह स्वयं निःस्वार्थ है अतः किसी भी फल से उसे दुःख नहीं होता है। कर्म में आसक्ति नहीं होती है। जहां कृत कर्म के लिए हम बदले में कुछ इच्छा रखते हैं। कर्म फल की आकांक्षा हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होती है। वैसे ही कर्म का फल बन्धन नहीं हो सकता है जो प्रकृति एवं मानव जाति के प्रति निःस्वार्थ होकर किया जाता है। कर्म को उपासना समझकर करना चाहिए।


निःस्वार्थ कर्म में भी कर्ता साध्य की प्राप्ति को अपने सामने रखकर कर्म करता है। बिना किसी लक्ष्य या साध्य को सामने रखे हुए कोई भी मानसिक प्रवृत्ति आगे नहीं बढ़ सकती है। निष्काम कर्म में भी साध्य निहित होता है जो एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। साध्य से कर्ता को प्रेरणा प्राप्त होती है और उसी प्रेरणा या प्रयोजन से मनुष्य कार्य करने में संलग्न होता है। निष्काम कर्म के साध्य के दो आधार हैं-कर्त्तव्य, कर्त्तव्य के लिए तथा कर्त्तव्य ईश्वर के लिए। पहले अर्थ में कर्त्तव्य करना ही साध्य है तथा दूसरे अर्थ में ईश्वर कर्ता का साध्य होता है।


वस्तुतः कर्म करना मनुष्य के अधीन है लेकिन कर्म का फल उसके प्रयास पर मात्र आधारित नहीं होता है। कर्ता के मनोनुकूल हमेशा फल नहीं होता है। कर्म का परिणाम ईश्वराधीन है। वैसे कर्म जो फल की आशा के साथ सम्पादित किए जाते हैं वह बन्धन का मूल कारण है। कर्म करना मनुष्य के लिए आवश्यक है, अतः उसे वैसा कर्म करना चाहिए जिसमें फल प्राप्ति की कामना निहित नहीं हो। कर्त्तव्य की भावना से कर्म करना चाहिए। कर्त्तव्य की भावना से सम्पादित कर्म में फल की कामना निहित नहीं रहती है, ऐसे ही कर्म निष्काम कर्म होते हैं। इस अवस्था में क्रियाशील होते हुए भी कर्ता कर्मों से विरक्त रहता है। इन कर्मों में कामना नहीं रहती है। कोई भी कर्म बिना कामना के सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रकार के कर्म में फल की कामना नहीं होती है, बल्कि ईश्वर प्राप्ति की कामना निहित होती है। ऐसे कर्म यज्ञ की भावना से तथा आत्म प्राप्ति के लिए सम्पादित किए जाते हैं। इससे बन्धन नहीं होता है। निष्काम कर्म से मुक्ति मिलती है। अतः व्यक्ति को कर्त्तव्य, कर्त्तव्य की भावना से कर्म करना चाहिए। वैसे कर्म जो धर्म के अनुसार बिना फल प्राप्ति की इच्छा के किए जाते हैं, वही निष्काम कर्म कहलाता है। कर्म का मूल संकल्प होता है, लेकिन यह संकल्प इच्छा का निषेध करके किया जाता है। अतः कर्म के फल से विरक्त होकर केवल कर्त्तव्य की भावना से जो कर्म किया जाता है उसे ही निष्काम कर्म कहते हैं। निष्काम कर्म में कर्म का सम्पादन स्वंय को ईश्वर के प्रति समर्पित करके किया जाता है। निष्काम कर्म कर्म का निषेध नहीं करता है बल्कि यह कर्म योग का संदेश देता है।


बद्री लाल गुर्जर

बनेडिया चारणान

(टोंक)


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