22 सित॰ 2024

भगवद गीता जीवन जीने की कला

 भगवद गीता  जीवन जीने की कला

भगवद गीता  जीवन जीने की कला

श्रीमद्भागवत गीता एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ है जिसे महाभारत के भीष्म पर्व में सम्मिलित किया गया है। इसका पूरा नाम भगवद गीता है जिसका अर्थ है भगवान का गीत या ईश्वर की वाणी है। यह श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान हुआ संवाद है। इस संवाद में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन कर्म धर्म और मोक्ष से संबंधित गहन शिक्षाएँ दी हैं।

गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है बल्कि इसे एक दार्शनिक नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शिका माना जाता है। इसके 18 अध्यायों में 700 श्लोक शामिल हैं जो जीवन की जटिलताओं का समाधान प्रदान करते हैं और हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।

गीता के प्रमुख सिद्धांतों में कर्मयोग अर्थात निस्वार्थ कर्म, ज्ञानयोग या आत्मज्ञान और भक्ति योग अर्थात ईश्वर के प्रति समर्पण शामिल हैं। यह ग्रंथ व्यक्ति को जीवन के हर पहलू में संतुलन बनाए रखने मोह और माया से मुक्त होने और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। गीता न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह जीवन जीने की एक गहन कला और मार्गदर्शक पुस्तक भी है। इसके उपदेश हर व्यक्ति के जीवन को दिशा देने और जीवन के विभिन्न पहलुओं में संतुलन लाने में सहायक होते हैं। इस लेख में हम गीता के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण सिद्धांतों और जीवन जीने की कला पर चर्चा करेंगे।

भगवद गीता की पृष्ठभूमि-

महाभारत के युद्ध के समय जब अर्जुन युद्धभूमि में अपने ही संबंधियों गुरुओं और मित्रों के खिलाफ युद्ध करने से मानसिक और भावनात्मक रूप से टूट जाता है तब भगवान श्रीकृष्ण उसे जीवन के गहरे सत्य और कर्तव्यों का बोध कराते हैं। गीता के 700 श्लोकों में अर्जुन की मानसिक स्थिति जीवन के जटिल प्रश्न और श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए गहरे आध्यात्मिक और व्यावहारिक उत्तर समाहित हैं। ये शिक्षाएँ न केवल अर्जुन के लिए प्रासंगिक थीं बल्कि हर व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षणों में मार्गदर्शन करती हैं।

भगवद गीता के प्रमुख सिद्धांत और जीवन जीने की कला-

1 कर्तव्य और कर्म योग -

गीता का सबसे प्रमुख संदेश है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन निस्वार्थ भाव से करना चाहिए। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म करना मनुष्य का धर्म है और फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना ही वास्तविक योग है। इसे कर्म योग कहा जाता है। कर्म योग का सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को केवल अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए न कि उनके परिणाम पर। गीता में कहा गया है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है परिणामों पर नहीं। यह सिद्धांत हमें यह सिखाता है कि जीवन में किसी भी कार्य को करते समय फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। फल की चिंता हमें विचलित कर सकती है जबकि कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने से हम बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।

कर्म योग भगवद गीता का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो हमें निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करने की शिक्षा देता है। कर्म योग का शाब्दिक अर्थ है कर्म के माध्यम से योग या कर्तव्यों के पालन द्वारा आत्म-साक्षात्कार। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का उपदेश दिया जिसमें यह बताया गया कि कैसे व्यक्ति निस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए आध्यात्मिक उन्नति और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।

कर्म योग का तात्पर्य-

गीता में कर्म योग का मुख्य सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अपेक्षा किए बिना ईमानदारी और निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। कर्म करने का अधिकार व्यक्ति को है लेकिन कर्म का फल भगवान के हाथों में है। कर्म योग यह सिखाता है कि जीवन में संतुलन और सफलता का रास्ता केवल कर्म के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है न कि फल की चिंता करके।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है फल में नहीं। इसलिए तुम कर्म फल का कारण मत बनो और न ही अकर्मण्यता में आसक्त हो। कर्म योग का मूल संदेश है कि व्यक्ति को कर्म करते समय परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निस्वार्थ भाव से कर्म करना चाहिए।

कर्म योग के मुख्य सिद्धांत-

1 निस्वार्थ भाव से कर्म करना-

कर्म योग का प्रमुख सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को बिना किसी स्वार्थ या लालच के अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। निस्वार्थ भाव से कर्म करने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने कर्मों को केवल अपनी संतुष्टि या लाभ के लिए नहीं करता बल्कि उसे समाज परिवार और ईश्वर के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए करता है। निस्वार्थ भाव से किए गए कार्य ही जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं और व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाते हैं।

2 कर्म का अधिकार-

कर्म योग हमें यह सिखाता है कि हमें केवल अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि फल पर हमारा नियंत्रण नहीं है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट रूप से बताते हैं कि व्यक्ति का अधिकार केवल अपने कर्तव्यों को पूरा करने तक सीमित है। कर्म के परिणाम को भगवान या प्रकृति के हाथ में छोड़ देना ही कर्म योग का मूल भाव है।

3 कर्म का त्याग नहीं-

कर्म योग यह सिखाता है कि हमें कर्म करना कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जीवन में निष्क्रियता या अकर्मण्यता का कोई स्थान नहीं है। बल्कि हमें फल की इच्छा का त्याग करना चाहिए। कर्म योग में निष्क्रियता की जगह कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है लेकिन इस शर्त के साथ कि व्यक्ति अपने कर्म के परिणाम की चिंता नहीं करेगा।

4 धर्मानुसार कर्म करना-

कर्म योग में यह भी बताया गया है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन धर्मानुसार करना चाहिए। धर्म का अर्थ केवल धार्मिक अनुष्ठानों से नहीं है बल्कि यह जीवन के हर कार्य में सत्य न्याय और नैतिकता का पालन करने से है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि अपने धर्म का पालन करते हुए कर्म करना ही सच्चा कर्म योग है।

5 ईश्वर के प्रति समर्पण-

कर्म योग में व्यक्ति को यह भी सिखाया जाता है कि सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना चाहिए। जब हम अपने कर्मों को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं तो हमें कर्म के फल की चिंता नहीं रहती। यह भाव जीवन को सरल शांतिपूर्ण और निस्वार्थ बनाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी कर्मों को मुझ में समर्पित कर दो।

यहां पर कर्मयोग व्यक्ति को जीवन की जटिलताओं से मुक्त करने का मार्ग दिखाता है।

कर्म योग के व्यावहारिक लाभ-

1 मानसिक शांति-

कर्म योग का पालन करने से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है। जब व्यक्ति फल की चिंता किए बिना अपने कर्मों का पालन करता है तो उसे मानसिक तनाव या चिंता नहीं होती। यह उसे जीवन के हर पहलू में शांति और संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।

2 जीवन में संतुलन-

कर्म योग हमें सिखाता है कि जीवन के हर कार्य में संतुलन कैसे बनाए रखा जाए। हमें अपने कार्यों में समर्पित होना चाहिए लेकिन उस कार्य के परिणाम के प्रति आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। यह जीवन में संतुलन बनाए रखने का एक प्रभावी तरीका है।

3 निस्वार्थ सेवा की भावना-

कर्म योग से व्यक्ति निस्वार्थ भाव से सेवा करना सीखता है। जब व्यक्ति कर्म योग के सिद्धांत का पालन करता है, तो वह समाज, परिवार और दूसरों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को अधिक गंभीरता से समझता है और निस्वार्थ भाव से सेवा करने लगता है।

4 आध्यात्मिक उन्नति-

कर्म योग व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में ले जाता है। जब व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है और फल की इच्छा त्याग देता है तब उसे आध्यात्मिक शांति और आत्मिक उन्नति प्राप्त होती है।

5 असफलता का भय नहीं-

कर्म योग यह सिखाता है कि हमें कर्म करते समय असफलता का भय नहीं होना चाहिए। जब हम फल की चिंता किए बिना कर्म करते हैं तो असफलता का भय हमें विचलित नहीं करता। यह व्यक्ति को आत्मविश्वास और धैर्य के साथ जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

कर्म योग और जीवन में इसकी प्रासंगिकता-

आज के समय में भी कर्म योग के सिद्धांत अत्यधिक प्रासंगिक हैं। जीवन में सफलता और असफलता की चिंता प्रतियोगिता और सामाजिक दबाव हमें मानसिक रूप से प्रभावित करते हैं। ऐसे में गीता का कर्म योग हमें यह सिखाता है कि निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करें और जीवन के हर पहलू में संतुलन कैसे बनाए रखें।

कर्म योग हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए बल्कि अपने कार्यों में पूरी निष्ठा के साथ लगे रहना चाहिए। यह सिद्धांत हर पेशे और हर क्षेत्र में सफलता और मानसिक शांति का मार्ग दिखाता है। कर्म योग भगवद गीता का एक प्रमुख सिद्धांत है जो व्यक्ति को निस्वार्थ भाव से कर्म करने धर्म का पालन करने और फल की चिंता किए बिना जीवन जीने की प्रेरणा देता है। कर्म योग केवल एक धार्मिक सिद्धांत नहीं है बल्कि यह जीवन जीने की एक कला है जो हमें हर परिस्थिति में संतुलन शांति और आत्मिक उन्नति का मार्ग दिखाती है।

2 समानता और संतुलन-

गीता हमें सिखाती है कि जीवन में उतार-चढ़ाव सुख-दुःख सफलता-असफलता आते-जाते रहते हैं। व्यक्ति को इन परिवर्तनों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए और धैर्य पूर्वक हर स्थिति का सामना करना चाहिए। इसे समत्व कहा जाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- कि सुख-दुःख लाभ-हानि और जीत-हार को समान समझो और अपने कर्तव्य का पालन करो।

यह जीवन जीने की कला हमें सिखाती है कि जीवन में किसी भी परिस्थिति में अपने मन को शांत और स्थिर रखना चाहिए। सफलता और असफलता दोनों ही अस्थायी होती हैं लेकिन हमारी मानसिक शांति ही सच्ची स्थिरता है।

गीता के अनुसार समानता और संतुलन जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म, जीवन और मानसिक स्थिति के संदर्भ में समानता और संतुलन का महत्व समझाते हैं। यह सिखाते हैं कि जीवन में सफलता, असफलता, सुख, दुख, लाभ, हानि जैसी स्थितियों में मानसिक संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

1 समानता का अर्थ-

गीता के अनुसार समता का अर्थ है जीवन की सभी परिस्थितियों में एक जैसा दृष्टिकोण रखना। यह केवल बाहरी घटनाओं से प्रभावित हुए बिना आंतरिक शांति बनाए रखने की क्षमता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि जीत और हार, सुख और दुख, लाभ और हानि को समान दृष्टि से देखना चाहिए।तथा कर्म करते हुए सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहना ही योग कहलाता है। समता का अभ्यास व्यक्ति को स्थिर और शांत रखता है जिससे वह सही निर्णय ले सकता है।

2 संतुलन का महत्व-

गीता के अनुसार संतुलन का मतलब है कि कोई व्यक्ति सुख-दुख, प्रशंसा-निंदा, लाभ-हानि जैसे द्वंद्वों से प्रभावित हुए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करे। जीवन के हर पहलू में संतुलन बनाए रखना ही आत्मनियंत्रण और शांति का मार्ग है। मनुष्य को न तो अत्यधिक भोजन करना और न ही उपवास न ही बहुत सोना और न ही जागरण योग के लिए उचित है। व्यक्ति को जीवन में हर चीज़ में संतुलन बनाए रखना चाहिए।

3 कर्म योग और समता-

गीता में कर्म योग की अवधारणा में भी समानता और संतुलन का बड़ा महत्व है। कर्म करने का अधिकार हमारा है, लेकिन फल की चिंता किए बिना कर्म करना चाहिए। इससे व्यक्ति मानसिक रूप से शांत और स्थिर रहता है। कर्म करना आपका अधिकार है लेकिन फल की अपेक्षा कभी न करें। न ही फल की इच्छा से कर्म करें और न ही कर्म न करने में आसक्ति रखें। गीता समानता और संतुलन को आत्मनियंत्रण, शांति और सही दृष्टिकोण के रूप में प्रस्तुत करती है। हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखना और अपने कर्तव्यों का पालन संतुलन के साथ करना ही जीवन में स्थायी सुख और आत्मिक संतोष का मार्ग है।

3 आत्म-साक्षात्कार और ज्ञानयोग-

गीता के अनुसार जीवन का वास्तविक उद्देश्य आत्मा को जानना और अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। इसे आत्म-साक्षात्कार कहा जाता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि आत्मा अविनाशी और शाश्वत है और शरीर केवल उसका एक साधन है। मृत्यु केवल शरीर की होती है आत्मा अजर-अमर है। गीता का यह ज्ञान व्यक्ति को जीवन के हर पहलू को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखने की प्रेरणा देता है। श्रीकृष्ण कहते हैं - आत्मा न कभी जन्म लेती है और न मरती है। यह ज्ञानयोग व्यक्ति को जीवन के भय और मोह से मुक्त करता है और उसे अपनी आत्मा के सत्य को पहचानने की दिशा में प्रेरित करता है। आत्म-साक्षात्कार और ज्ञानयोग दोनों ही महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सिद्धांत हैं जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति को समझने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए भगवद गीता और वेदांत में चर्चा किए गए हैं।

1 आत्म-साक्षात्कार-

आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है आत्मा की सच्ची पहचान का अनुभव करना अर्थात यह जानना कि हम मात्र शरीर, मन और बुद्धि नहीं हैं बल्कि शुद्ध चेतना ही आत्मा हैं। यह अनुभव तब होता है जब व्यक्ति माया और अहंकार से मुक्त होकर अपनी वास्तविकता को समझता है। इसे मोक्ष या आत्मज्ञान के रूप में भी जाना जाता है।

आत्मा की पहचान-

आत्म-साक्षात्कार में व्यक्ति समझता है कि आत्मा अमर, शाश्वत और दिव्य है जो न तो जन्म लेती है और न मरती है। यह जन्म और मृत्यु के चक्र से परे है। आत्मा का कभी जन्म नहीं होता और न ही इसकी मृत्यु होती है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और प्राचीन है। जब शरीर नष्ट होता है तब भी आत्मा नष्ट नहीं होती।

अहंकार से मुक्ति-

आत्म-साक्षात्कार के साथ व्यक्ति यह समझता है कि उसकी पहचान शरीर या मन से नहीं है। यह अहंकार से परे की स्थिति है जिसमें व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म सर्वशक्तिमान या परमात्मा के रूप में देखता है।

आत्मिक अनुभव-

आत्म-साक्षात्कार का अनुभव गहरी साधना, ध्यान और विवेक के माध्यम से होता है। जब व्यक्ति अपने भीतर के सच्चे स्व को जानता है तो उसे शांति, आनंद और पूर्णता की अनुभूति होती है।

2 ज्ञानयोग- 

ज्ञानयोग वह मार्ग है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञान और विवेक का उपयोग करता है। यह चार योग मार्गों में से एक है अन्य हैं कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग। ज्ञानयोग में व्यक्ति को आत्मा, ब्रह्म और संसार की वास्तविकता का बोध होता है और वह विचार विश्लेषण और समझ के माध्यम से मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

विवेक- 

ज्ञानयोग के अनुसार व्यक्ति को नित्यऔर अनित्य के बीच भेदभाव करना सीखना चाहिए। संसार की सभी चीज़ें अस्थायी हैं जबकि आत्मा और ब्रह्म नित्य हैं। जो व्यक्ति शरीर और आत्मा के भेद को ज्ञान की दृष्टि से समझता है वह परमात्मा को प्राप्त करता है।

श्रवण, मनन और निदिध्यासन ज्ञानयोग के तीन प्रमुख चरण हैं-

1 श्रवण-

शास्त्रों और गुरुओं से आत्मा और ब्रह्म के बारे में सुनना।

2 मनन-

सुने हुए ज्ञान पर गहराई से चिंतन करना।

3 निदिध्यासन-

ध्यान के माध्यम से उस ज्ञान का आत्मसात करना और अनुभव करना।

अहंकार और माया से मुक्ति-

ज्ञानयोग में व्यक्ति यह समझता है कि माया संसार के प्रति हमारी मोह और अहंकार के कारण होती है। जब व्यक्ति ज्ञान के द्वारा माया से ऊपर उठता है तो उसे आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है।

आत्म-साक्षात्कार वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति स्वयं को शुद्ध आत्मा के रूप में जानता है और यह समझता है कि वह शरीर और मन से परे है। तथा ज्ञानयोग वह मार्ग है जो विवेक और ज्ञान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। यह व्यक्ति को आत्मा और ब्रह्म की वास्तविकता को समझने और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है। दोनों का उद्देश्य एक ही है आत्मा और ब्रह्म की पहचान करना और जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना।

4 भक्ति योग-

गीता में श्रीकृष्ण भक्ति को भी जीवन जीने की एक महत्वपूर्ण कला बताते हैं। भक्ति योग का सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को ईश्वर के प्रति समर्पित होकर जीवन के कार्यों को करना चाहिए। भगवान कृष्ण कहते हैं कि जब व्यक्ति अपने सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पण कर देता है और उनमें किसी प्रकार की स्वार्थ भावना नहीं रहती तब वह सच्चे अर्थों में ईश्वर की भक्ति करता है। गीता में भगवान कहते हैं- सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जाओ।

यह भक्ति योग व्यक्ति को अहंकार और स्वार्थ से मुक्त करता है और उसे ईश्वर के प्रति समर्पित होने की प्रेरणा देता है। यह जीवन को सरल शांतिपूर्ण और स्थिर बनाता है।

भक्ति योग भक्ति मार्ग हिंदू धर्म में चार प्रमुख योग मार्गों में से एक है जिसका उद्देश्य परमात्मा या ईश्वर के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करना है। भगवद गीता, भागवत पुराण और अन्य धर्मग्रंथों में भक्ति योग को एक सरल और प्रभावी मार्ग माना गया है जो किसी भी व्यक्ति के लिए सुलभ है चाहे उसकी कोई भी सामाजिक या शैक्षणिक पृष्ठभूमि हो।

भक्ति योग का अर्थ-

भक्ति योग में भक्ति का अर्थ है ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण जबकि योग का अर्थ है ईश्वर से जुड़ने या एक होने का मार्ग। यह मार्ग व्यक्ति को अहंकार लोभ और इच्छाओं से मुक्त कर प्रेम और समर्पण की भावना के साथ ईश्वर की प्राप्ति की ओर ले जाता है।

भगवद गीता में भक्ति योग-

भगवद गीता के अनुसार भक्ति योग ईश्वर के प्रति अनन्य और निस्वार्थ प्रेम पर आधारित है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि भक्ति मार्ग सभी अन्य योग मार्गों से सरल और सुगम है क्योंकि इसमें केवल सच्चे प्रेम और समर्पण की आवश्यकता होती है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो लोग मुझमें अनन्य भाव से भक्ति करते हैं और मुझे सच्चे मन से भजते हैं उनके योग आवश्यकताओं और क्षेम सुरक्षा का ध्यान मैं स्वयं रखता हूँ।

भक्ति योग के प्रमुख तत्व-

1 प्रेम और समर्पण-

भक्ति योग का मुख्य सिद्धांत ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण है। इसमें साधक को अपने अहंकार इच्छाओं और भौतिक वस्त्रों को त्यागकर ईश्वर की शरण में आना होता है। व्यक्ति को इस भाव से जीना होता है कि ईश्वर ही सब कुछ है और वह अपने सभी कर्तव्यों को ईश्वर की सेवा के रूप में देखता है।

2 स्मरण और कीर्तन- 

भक्ति योग में ईश्वर का नाम स्मरण या जप और कीर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह साधक को ईश्वर के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ता है और उसकी चेतना को शुद्ध करता है।

3 अनन्यता-

भक्ति योग में साधक को केवल एक ही ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए और अनन्य भाव से उसी की पूजा करनी चाहिए। श्रीकृष्ण ने कहा है कि मुझमें मन लगा मेरा भक्त बन मेरी पूजा कर और मुझे प्रणाम कर। इसी प्रकार से तू मुझमें पूरी तरह से जुड़ जाएगा।

4 निःस्वार्थ भाव-

भक्ति योग में साधक को अपने सभी कर्मों को ईश्वर के प्रति अर्पण करना होता है बिना किसी फल की अपेक्षा के। यह प्रेम और समर्पण बिना किसी स्वार्थ के होता है केवल ईश्वर की कृपा और प्रेम प्राप्त करने के लिए।

5 शरणागति-

भक्ति योग में साधक पूर्ण रूप से ईश्वर की शरण में आता है और अपने जीवन की हर स्थिति में उसे ही अपना रक्षक मानता है। यह ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास का प्रतीक है कि वह सब कुछ जानता और संभालता है।

भक्ति योग के प्रकार-

1 साक्षात भक्ति-

जब व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर की मूर्ति चित्र या प्रतिमा के सामने पूजा और आराधना करता है।

2 भावनात्मक भक्ति-

जब साधक अपने दिल में ईश्वर का स्मरण और अनुभव करता है और उसकी कृपा पर विश्वास रखता है।

3 निःस्वार्थ सेवा-

ईश्वर के नाम पर समाज की सेवा करना भी भक्ति योग का हिस्सा है। जैसे गरीबों की सेवा करना प्रकृति की रक्षा करना आदि।

भक्ति योग के लाभ-

1 आत्मिक शांति-

भक्ति योग के माध्यम से व्यक्ति को गहरी शांति और संतोष की प्राप्ति होती है क्योंकि वह अपने जीवन को ईश्वर की सेवा में समर्पित करता है।

2 अहंकार का नाश-

भक्ति योग व्यक्ति के अहंकार और स्वार्थ को समाप्त करता है और उसे विनम्रता और प्रेम का मार्ग दिखाता है।

3 आत्मिक उन्नति-

भक्ति योग व्यक्ति को आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर ले जाता है जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

4 ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम-

व्यक्ति अपने मन, वचन और कर्म से ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट करता है जो उसकी आत्मिक उन्नति का मार्ग बनता है।

भक्ति योग एक सरल और सुलभ मार्ग है जो सभी के लिए उपलब्ध है चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी धनी हो या गरीब। इसमें केवल ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम समर्पण और भक्ति की आवश्यकता होती है। यह मार्ग व्यक्ति को अहंकार द्वेष और स्वार्थ से मुक्त कर ईश्वर के प्रेम और शरण में ले जाता है जिससे अंततः मोक्ष प्राप्त होता है।

5 निस्वार्थ सेवा और लोक संग्रह-

गीता में श्रीकृष्ण निस्वार्थ सेवा की महत्ता पर जोर देते हैं। व्यक्ति को अपने कर्म केवल अपने लिए नहीं बल्कि समाज और लोक कल्याण के लिए करना चाहिए। इस सिद्धांत को लोक संग्रह कहा गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रेष्ठ होता है उसे समाज के लिए आदर्श बनना चाहिए और अपनी सेवा के माध्यम से दूसरों को प्रेरित करना चाहिए। यह सिद्धांत व्यक्ति को स्वार्थ से परे जाकर समाज के लिए जीने की प्रेरणा देता है।

6 धर्म और अधर्म का चुनाव-

गीता का एक महत्वपूर्ण संदेश यह भी है कि जीवन में हर व्यक्ति को सही और गलत के बीच चुनाव करना पड़ता है। धर्म का अर्थ है सत्य और न्याय के मार्ग पर चलना जबकि अधर्म का मतलब है अन्याय और असत्य का समर्थन करना। अर्जुन युद्ध में सही और गलत के बीच भ्रमित था लेकिन श्रीकृष्ण उसे धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं भले ही वह मार्ग कठिन हो। यह सिखाता है कि हमें जीवन में हमेशा धर्म और सत्य का साथ देना चाहिए चाहे परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो।

7 मोह और माया से मुक्त होने का मार्ग-

गीता में यह बताया गया है कि जीवन में मोह और माया भौतिक आकर्षण से मुक्त होना आवश्यक है। मोह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों से भटका सकता है और माया उसे सत्य से दूर कर सकती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मोह और माया से मुक्ति पाकर ही व्यक्ति सच्चे कर्तव्य का पालन कर सकता है और आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह जीवन जीने की कला सिखाती है कि व्यक्ति को भौतिक सुख-सुविधाओं और इच्छाओं में फँसे बिना अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान रहना चाहिए।

भगवद गीता न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह जीवन के हर पहलू को समझने और संतुलित रूप से जीने की कला सिखाती है। इसके सिद्धांत व्यक्ति को निस्वार्थ कर्म, संतुलन, आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर भक्ति का मार्ग दिखाते हैं। गीता का अध्ययन व्यक्ति को जीवन के संघर्षों में मार्गदर्शन देता है उसे सही और उचित व्यवहार करना सिखाती है।

गीता का महत्त्व-

गीता का विचार सरल स्पष्ट और प्रभावोत्पादक है यद्यपि गीता में उपनिषदों के विचारों की पुनरावृत्ति हुई है। उपनिषद् इतना गहन और विस्तृत है कि इसे साधारण मनुष्य के लिये समझना कठिन है परन्तु गीता इतनी सरल और विश्लेषणात्मक है कि इसे साधारण मनुष्य को समझने में कठिनाई नहीं होती है। वर्तमान युग में गीता का अत्यधिक महत्त्व है। आज के मानव के सामने अनेक समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का निराकरण गीता के अध्ययन से प्राप्त हो सकता है। अतः आधुनिक युग के मानव को गीता से प्रेरणा लेनी चाहिए। श्री अरविन्द ने गीता के उपदेश को आधुनिक युग के लिए अनुकरणीय कहा है। इन्हें धारण करना वांछनीय है। उन्होंने कहा है मानवी श्रम जीवन और कर्म की महिमा का उपदेश अपनी अधिकार वाणी से देकर सच्चे अध्यात्म का सनातन सन्देश गीता दे रही है जो कि आधुनिक काल के ध्येयवाद के लिए आवश्यक है ।

गीता का मुख्य उपदेश लोक-कल्याण है। आज के युग में जब मानव स्वार्थ की भावना से प्रभावित रहकर निजी लाभ के सम्बन्ध में सोचता है गीता मानव को परार्थ-भावना का विकास करने में सफल हो सकती है।

महात्मा गाँधी ने गीता की सराहना करते हुए कहा है जिस प्रकार हमारी पत्नी विश्व में सबसे सुन्दर स्त्री हमारे लिए है उसी प्रकार गीता के उपदेश सभी उपदेशों से श्रेष्ठ हैं। गाँधी जी ने गीता को प्रेरणा का स्रोत कहा है।

गीता का मुख्य उपदेश कर्म-योग है। अतः गीता मानव को संसार का मार्गदर्शन कर सकती है। आज का मानव भी अर्जुन की तरह एकांगी है। उसे विभिन्न विचारों में संतुलन लाने के लिए गीता का अध्ययन परमावश्यक है। गीता में ईश्वरवाद की पूर्ण रूप से चर्चा की गई है। गीता का ईश्वर सगुण, व्यक्तित्त्वपूर्ण और उपासना का विषय है। यद्यपि गीता में निर्गुण ईश्वर की ओर संकेत है फिर भी गीता का मुख्य आधार ईश्वरवाद है।


बद्री लाल गुर्जर

बनेडिया चारणान

    (टोंक)

अंतरदर्शन

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