मनुष्य के कर्म मुख्य रूप से कितने प्रकार के होते हैं
मनुष्य के कर्म मुख्य रूप से कितने प्रकार के होते हैं मनुष्य के कर्म फल का सिद्धांत भारतीय दर्शन और धर्म ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस सिद्धांत के अनुसार हर व्यक्ति के कर्म अर्थात उसके कार्य विचार और इच्छाएँ उसके जीवन में फल प्रदान करते हैं। यह कर्म फल केवल इस जन्म तक सीमित नहीं रहता बल्कि पिछले जन्मों के कर्मों का प्रभाव भी वर्तमान और भविष्य के जीवन पर पड़ता है। इसे कर्म का सिद्धांत या कर्म-संस्कार भी कहा जाता है।
पुरुष और प्रकृति- ये दो हैं। इनमें से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तन रहित नहीं होती। जब यह पुरुष प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब प्रकृति की क्रिया पुरुषका कर्म बन जाती है क्योंकि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध मानने से तादात्म्य हो जाता है। तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त हैं उनमें ममता होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है। इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता है तब तक जो कुछ परिवर्तन रूप क्रिया होती है उसका नाम कर्म है।
तादात्म्य के टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिये अकर्म हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रिया मात्र रह जाता है उसमें फल जनकता नहीं रहती यह कर्म में अकर्म है। अकर्म-अवस्था में अर्थात् स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है वह अकर्म में कर्म है। तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूपका अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके कार्य शरीर में होती हैं परन्तु प्रकृति या शरीरसे अपनी पृथक्ता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ कर्म बन जाती है।
मनुष्य के कर्म तीन प्रकार के होते हैं जो निम्नानुसार हैं- संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म।
1 संचित कर्म-
यह वह कर्म हैं जो पिछले जन्मों में किए गए होते हैं और जिनके फल भविष्य में प्राप्त होते हैं। यह कर्म एक प्रकार से संचित होते रहते हैं और मनुष्य के वर्तमान जीवन को प्रभावित कर सकते हैं।
2 प्रारब्ध कर्म-
यह वे कर्म हैं जिनके फल मनुष्य को वर्तमान जीवन में भोगने पड़ते हैं। प्रारब्ध कर्म का फल अवश्य भोगना होता है इसे टालना संभव नहीं होता।
3 क्रियमाण कर्म-
यह वे कर्म हैं जो मनुष्य वर्तमान में कर रहा है और जिनका फल उसे भविष्य में मिलेगा। क्रियमाण कर्म ही भविष्य के प्रारब्ध का निर्माण करते हैं।
इन तीनों प्रकार के कर्मों से मिलकर मनुष्य का जीवन और उसका भाग्य निर्धारित होता है।
क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं- शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधानसे किये जाते हैं वे शुभ कर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदिको लेकर जो शास्त्र-निषिद्ध कर्म किये जाते हैं वे अशुभ कर्म कहलाते हैं।
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश। ये दोनों अलग-अलग हैं।
क्रियमाण कर्म के फल-अंश के भी दो भेद हैं- दृष्ट और अदृष्ट। इनमें से दृष्ट के भी दो भेद होते हैं- तात्कालिक और कालान्तरिक जैसे भोजन करते हुए जो रस आता है उससे सुख होता है प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है- यह दृष्ट का तात्कालिक फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना यह दृष्टका कालान्तरिक फल है।
इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं-लौकिक और पारलौकिक। जीते- जी ही फल मिल जाय-इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र जप आदि शुभ कर्मों को विधि- विधानसे किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना - यह अदृष्टका लौकिक फल है और मरनेके बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय इस भाव से अर्थाथ विधि- विधान और श्रद्धा विश्वास पूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना यह अदृष्ट का पारलौकिक फल है। ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मों का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना यह अदृष्ट का लौकिक फल है और पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि बनना यह अदृष्ट का पारलौकिक फल है।
पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पाप कर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पाप- कर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा- इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परन्तु भगवान् को इसका पूरा पता है अतः उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिये मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था पर दण्ड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद् सर्व समर्थ भगवान् का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है। इसी तरह धन-सम्पत्ति, मान, आदर, प्रशंसा, नीरोगता आदि अनुकूल परिस्थिति के रूप में पुण्य-कर्मों का जितना फल यहाँ भोग लिया है उतना अंश तो यहाँ नष्ट हो ही गया और जितना बाकी रह गया है वह परलोक में फिर भोगा जा सकता है। यदि पुण्य- कर्मों का पूरा फल यहीं भोग लिया गया है तो पुण्य यहीं पर समाप्त हो जायँगे।
क्रियमाण-कर्म के संस्कार-अंश के भी दो भेद हैं- शुद्ध एवं पवित्र संस्कार और अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्र विहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं वे शुद्ध एवं पवित्र होते हैं और शास्त्र नीति लोक मर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं।
इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति,आदत) बनता है। उन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध, निर्मल, पवित्र हो जाता है परन्तु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं पर वे कर्म दोषी नहीं होते प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से दुनिया का कल्याण होता है।
कर्म फल का नियम इस बात पर आधारित है कि जैसा व्यक्ति कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म करने से सुख और समृद्धि मिलती है जबकि बुरे कर्म करने से दुःख और कष्ट मिलते हैं। यह सिद्धांत व्यक्ति को अपने कार्यों के प्रति ज़िम्मेदारी और नैतिकता का बोध कराता है और उसे सही दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।
अतः मनुष्य के कर्म फल का सिद्धांत जीवन को नैतिक और सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)