25 अक्टू॰ 2024

सृष्टि क्या है?

 सृष्टि क्या है?


सृष्टि का अर्थ है सृजन या रचना और इसे आमतौर पर ब्रह्मांड या प्रकृति की उत्पत्ति और उसकी संरचना के रूप में समझा जाता है। विभिन्न धार्मिक दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सृष्टि को निम्नानुसार समझा जा सकता है - 

1 हिंदू धर्म में - 

सृष्टि की उत्पत्ति का विवरण पुराणों और वेदों में मिलता है जिसमें ब्रह्मा विष्णु और महेश के त्रिदेव की भूमिका मानी जाती है। ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता माना जाता है जो इस संसार का निर्माण करते हैं। वेदों में सृष्टि को पंच तत्वों अग्नि जल वायु पृथ्वी और आकाश से उत्पन्न माना गया है।

2 वैज्ञानिक दृष्टिकोण से - 

वैज्ञानिक दृष्टि से सृष्टि की उत्पत्ति बिग बैंग सिद्धांत से जुड़ी है जिसके अनुसार लगभग 13.8 अरब वर्ष पहले एक महा विस्फोट हुआ जिससे ऊर्जा और पदार्थ का निर्माण हुआ और समय के साथ ये विभिन्न आकाशीय पिंडों में संगठित होते गए जिनसे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ।

3 दर्शन और अन्य दृष्टिकोण - 

अन्य कई दार्शनिक दृष्टिकोण सृष्टि को माया या भ्रम मानते हैं जिसमें यह कहा जाता है कि संसार एक अस्थायी वास्तविकता है। बौद्ध और जैन धर्म में इसे एक चक्र के रूप में देखा गया है जिसमें पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इस तरह सृष्टि के अर्थ और उसके स्रोत के बारे में अलग-अलग मान्यताएँ हैं जो समय संस्कृति और ज्ञान के आधार पर भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।

रविन्द्र नाथ टैगोर -

रविन्द्र नाथ टैगोर सुष्टि की वास्तविकता पर विश्वास करते हैं अतः उन्होंने सृष्टि के विशद विवरण की चेष्टा की है।उनका यह विवरण प्रायः ईश्वरवादी विवरण जैसा ही है किन्तु उसकी विशिष्टता यह है कि उसमें स्पष्ट मानववादी अंश विद्यमान है।

उनके अनुसार ईश्वर ही परमसत् है अतः ईश्वर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है। किन्तु जब सृष्टि का प्रश्न उठता है तो मूल प्रश्न यह बन जाता है कि उस आधार से सृष्टि के व्यक्त होने का ढंग क्या है ? टैगोर स्वीकारते हैं कि सृष्टि उसी ईश्वर-रूप परमसत् की अभिव्यक्ति है। इस स्थल पर टैगोर ईश्वर स्वरूप की एक विशिष्टता का वैचारिक विश्लेषण करते हैं। सृष्टि की क्षमता ईश्वर का एक लक्षण है। इसका अर्थ है कि ईश्वर स्वभावतः सृष्टि करता ही है। ईश्वर बैठा रहे और सृष्टि न करे- ऐसा सम्भव नहीं है। ईश्वर का आत्म-प्रकाश सृष्टि से ही मुखरित होता है। यह ईश्वर की सीमा नहीं ईश्वर का स्वभाव है ईश्वर-रूप का अर्थ है।

इस बात को समझना आवश्यक है। ईश्वर सृष्टि के बिना नहीं रहता किन्तु यह कोई मजबूरी कोई बोझ अथवा कोई बन्धन नहीं है। वह तो आनन्द-रूप है तथा सृष्टि ईश्वरीय आनन्द की ही अभिव्यक्ति है। सृष्टि सृष्टिकर्ता की लीला है। लीला आनन्द की अभिव्यक्ति है आनन्दमय खेल है। यही कारण है कि सृष्टि से कोई द्वैत उत्पन्न नहीं होता। आनन्द की अभिव्यक्ति में कर्त्ता अपने को ही पाता रहता है आनन्दमय खेल में अपने से बाहर आना अपने को पाना ही है। साधारण खेल के उदाहरण से भी इस बात को समझने में कुछ सहायता मिल सकती है। यदि हम खेल के आनन्द से पृथक हो खेल को देखें तो ऐसा लग सकता है कि उसमें अनावश्यक कष्ट उठाया जा रहा है किन्तु यदि खेल के आनन्दमय रूप को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि जिसे हम अलग से बैठ कष्ट समझ रहे हैं वह वस्तुतः खेलने वाले के लिए उसके आनन्द का ही अंश है। उस खेल में उस खेल से वह अपने को ही पा रहा है तथा तृप्त हो रहा है। इस साधारण खेल का स्वरूप जब ऐसा है तो जो आनन्द की पूर्णता है उसके पूर्ण आनन्दमय खेल में- लीला में बस आनन्द है। सृष्टि इस खेल में सृष्टिकर्ता से भिन्न नहीं हो जाती यह भिन्न केवल इस अर्थ में है कि यह भिन्नता भी उस आनन्द का एक अवयव है मूलतः कोई तात्विक द्वैत उत्पन्न नहीं होता। संगीत तथा प्रेम के उदाहरण के द्वारा टैगोर इसे स्पष्ट करने की चेष्टा करते हैं। जब संगीतकार अपने संगीत में पूर्णतया डूब जाता है तो उस संगीत की सुष्टि में एक अर्थ में वह अपने से बाहर अवश्य आता है। किन्तु अपने से अलग उस संगीत का निर्माण कर वह पूर्णतया उसी में खो जाता है उससे एकरूप हो जाता है इसी में उसकी परिपूर्णता है। उसी प्रकार प्रेमी का प्रेम तभी यथार्थ होता है जब वह अपने प्रिय में पूर्णतया खो जाय ।अतः टैगोर कहते हैं कि आनन्द की अभिव्यक्ति का अर्थ ही है कि स्वतः पृथकत्त्व उत्पन्न कर पुनः उसे आत्मसात् कर परिपूर्णता प्राप्त करें। इन उदाहरणों के विश्लेषण के आधार पर टैगोर सृष्टि के आनन्दमय रूप का एक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार के विश्लेषण को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि एक अर्थ में सृष्टि को अनिवार्य माना जा सकता है। सुष्टिकर्त्ता पर कोई बन्धन नहीं है वह स्वतः सृष्टिकर्ता है फिर भी एक प्रश्न में सृष्टि को अनिवार्य कहा जा सकता है। सुष्टि-विचार की दर्शनशास्त्रीय व्याख्या के लिये इस प्रकार का विचार स्पष्टतः असंगत प्रतीत होता है। यह विचार विरोधों से मुक्त नहीं प्रतीत होता कि यदि सृष्टि सृष्टिकर्ता की स्वतंत्र कियात्मकता का परिणाम है तो यह अनिवार्य कैसे है? टैगोर को इस कठिनाई की अवगति है तथा इसका निराकरण वे कई ढंगों से करने का प्रयास करते हैं। एक ढंग तो सीधा ढंग है। वे कहते हैं कि सृष्टि अनिवार्य है क्योंकि यह ईश्वर के अनिवार्य आनन्द-रूप लक्षण की अभिव्यक्ति है। उसका स्वरूप ही सृष्टि करने का स्वरूप है। ईश्वर के द्वारा सृष्टि की गयी है अतः यह ईश्वर की स्वतंत्रता के अनुरूप है किन्तु यह ईश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति है इसलिये अनिवार्य है। असीम ईश्वर ससीम से सर्वथा पृथक हो कर असीम भी नहीं रह सकता। इस दृष्टि से ससीम का होना उसके लिये अनिवार्य है। पुनः एक दूसरे ढंग से भी टैगोर इस कठिनाई का निराकरण करते हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के पीछे विचार यही है ईश्वर जो एक है वह अनेकता में भी अपनी एकता को देखना चाहता था तथा इसी का परिणाम सृष्टि है। इससे एक ओर तो ईश्वर की स्वतंत्र सर्जनात्मकता भी खण्डित नहीं होती तथा दूसरी ओर इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि ईश्वर से सर्वथा भिन्न नहीं है बल्कि ईश्वरीय ही है। जैसा कि टैगोर कहते हैं असीम तथा ससीम उसी प्रकार एक हैं जिस प्रकार गायक और उसका गायन ।यह भी सिद्ध करता है कि सृष्टि अनिवार्य हैं क्योंकि वह ईश्वरीय ही है।

इस प्रकार की विवेचना से एक अन्य मूल प्रश्न भी उठ जाता है। सृष्टिवास्तविक हैं या केवल प्रतीति मात्र है? टैगोर के लेखों में कुछ ऐसे विवरण हैं जिन्हें देखने से लगेगा कि टैगोर भी शंकर के समान सृष्टि को भ्रामक मानते हैं। किन्तु सर्वांगी दृष्टि से टैगोर के विचारों को समझने से यह प्रायः स्पष्ट हो जाएगा कि टैगोर सृष्टि को मिथ्या नहीं कहते । टैगोर की रचनाओं में जगत की भ्रामकता जैसी बातों का उल्लेख प्रायः उन्हीं स्थलों पर हुआ है जहां टैगोर चेतना को विस्तृत करने की अनुशंसा करते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि चेतना की व्यापकता के लिए सीमित वस्तुओं से चेतना को ऊपर उठाना अनिवार्य है। वहां संदर्भ दृष्टि परिवर्तन का है। तात्विक विवरणों में टैगोर प्रायः निश्चित ढंग से कहते हैं कि जगत सत् की अभिव्यक्ति है किन्तु यह मिथ्या या भ्रामक नहीं है। सत् का व्यक्त रूप असत् या मिथ्या नहीं हो सकता है वह भी वास्तविक ही है। वास्तविक है

इस स्थल पर टैगोर के द्वारा किया गया एक अन्य स्पष्टीकरण को समझ लेना उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वस्तुतः टैगोर के द्वारा किया गया विवरण कुछ मानव-केन्द्रित विवरण हो जाता है क्योंकि वे जगत के दृश्यरूप को दृष्टि पर आधारित कर देते हैं। जैसे वे कहते हैं कि जिसे हम जगत या प्रकृति कहते हैं वह वस्तुतः न तो कोई अमूर्तभाव है न कोई पूर्णतया वस्तुनिष्ठ रूप बल्कि जगत का दृश्यरूप है।अपनी पुस्तक पर्सनलिटी में वे कहते हैं कि यह तो एक स्थापित सत्य है कि जगत वही है जिस रूप में वह दिखाई देता है। हम एक प्रकार से यह मान कर चलते हैं कि हमारा मन एक प्रकार का दर्पण है जिसमें बाहर जो घट रहा है वह यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित हो रहा है। इस बात को वे अनेकों उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि यदि हम अपने मन की वृत्ति को परिर्वातत कर सकें तो दृश्य जगत का दृश्य रूप भी परिवर्तित हो जायगा। यह भी हो सकता है कि तब हम जगत को दौड़ता हुआ देखें तथा जल-प्रपात को स्थिर देखें। टैगोर कहते हैं कि विज्ञान सामान्यतः इस सम्भावना को महत्व नहीं देता क्योंकि उसके लिए वस्तुनिष्ठता प्रधान होती है। विज्ञान आत्म की केन्द्रीयता की प्रायः उपेक्षा ही करता है वह इस बात को एक प्रकार से विस्मरण ही कर लेता है कि जगत की वास्तविकता आत्म से सम्बन्धित होने पर ही स्पष्ट होती है। अतः टैगोर का कहना है कि जगत उसी रूप में यथार्थ होता है। जिस रूप में वह दिखाई देता है। इस दृष्टि से जगत प्रतीति है किन्तु इसका प्रतीति होना इसे मिथ्या या भ्रामक नहीं बना देता। जैसा कि टैगोर कहते हैं यदि सत् की उसकी प्रतीति से सर्वथा पृथक कर दिया जाय तो सत् का एक अंश भंग हो जाता है। इस प्रकार सृष्टि का शाब्दिक अर्थ है सृजन या रचना। यह शब्द आमतौर पर संपूर्ण ब्रह्मांड प्रकृति या संसार की उत्पत्ति और संरचना को संदर्भित करता है। सृष्टि वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से किसी शक्ति या तत्व द्वारा जगत का निर्माण या उसकी रचना की जाती है।

दर्शन और धार्मिक परंपराओं में सृष्टि का अर्थ इस संसार का वह स्वरूप है जो अस्तित्व में आया है और इसमें प्रकृति के सभी तत्व जीव-जंतु, तथा जड़-चेतन वस्तुएँ शामिल हैं।

लेखक- बद्री लाल गुर्जर

ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com

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