बच्चों में परोपकार की भावना कैसे विकसित करें
✍️ लेखक – बद्री लाल गुर्जर
प्रस्तावना
मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। समाज में रहते हुए वह केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी सोचता है। यही दूसरों के लिए सोचना, उनकी सहायता करना और बिना किसी स्वार्थ के सेवा करना – परोपकार कहलाता है। बच्चों के व्यक्तित्व विकास में यह गुण अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि परोपकारी भावना उन्हें एक संवेदनशील, सहानुभूतिशील और जिम्मेदार नागरिक बनाती है।
बचपन वह अवस्था है, जब मूलभूत संस्कार और भावनाएँ आकार लेती हैं। यदि इस अवस्था में बच्चों के मन में परोपकार, सहानुभूति और सहयोग की भावना रोप दी जाए, तो वे जीवनभर दूसरों की सहायता करने को तत्पर रहेंगे। यह लेख इसी दिशा में एक प्रयास है – कि हम बच्चों में परोपकार की भावना कैसे विकसित करें।
1 परोपकार की परिभाषा और महत्त्व
परोपकार क्या है?
परोपकार का अर्थ है – दूसरों की भलाई करना, बिना किसी स्वार्थ के। इसका मूल आधार करुणा, दया और मानवीय संवेदनाएँ हैं। परोपकारी व्यक्ति दूसरों के दुःख-दर्द को समझता है और यथासंभव सहायता करता है।
बच्चों में परोपकार क्यों आवश्यक?
- यह भाव बच्चों को संवेदनशील बनाता है
- उनमें सहयोग, सह-अस्तित्व और करुणा का विकास करता है
- समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है
- स्वयं बच्चों का मानसिक, भावनात्मक और नैतिक विकास होता है
2 परोपकार की भावना के विकास में परिवार की भूमिका
घर ही प्रथम पाठशाला है
बच्चे सबसे पहले जो सीखते हैं, वह अपने घर से ही। यदि परिवार के सदस्य एक-दूसरे की मदद करते हैं, बुजुर्गों की सेवा करते हैं, पड़ोसियों का ख्याल रखते हैं – तो बच्चे स्वाभाविक रूप से वही सीखते हैं।
कैसे बढ़ाएं परोपकार की भावना:
- माता-पिता स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करें
- बच्चों को घर के छोटे-मोटे कामों में शामिल करें
- दादी-नानी की कहानियों में परोपकार को स्थान दें
- हर सप्ताह किसी परोपकारी कार्य को पारिवारिक परंपरा बनाएं (जैसे – मंदिर में प्रसाद बाँटना, बेजुबानों को खाना देना)
3 विद्यालयों की भूमिका
शिक्षा से अधिक संस्कार
विद्यालय बच्चों के नैतिक विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। शिक्षा के साथ-साथ यदि शिक्षक विद्यार्थियों में नैतिक मूल्य, सेवा और परोपकार के बीज बोएँ, तो समाज में परिवर्तन संभव है।
विद्यालयों में लागू की जा सकती हैं ये गतिविधियाँ:
- नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता
- ‘सेवा सप्ताह’ का आयोजन
- वृद्धाश्रम या अनाथाश्रम की यात्राएँ
- ‘एक मददगार बच्चा’ योजना – जिसमें हर बच्चा सप्ताह में एक परोपकारी कार्य करे
- प्रार्थना सभा में परोपकार पर कहानियाँ और प्रेरक प्रसंग
4 सामाजिक अनुभवों से सीख
बाल्यावस्था में अनुभव जरूरी
बच्चे जब अपने आस-पास जरूरतमंदों को देखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से उनका मन सहानुभूति से भर जाता है। यदि इस भावना को दिशा दी जाए, तो वह परोपकार का रूप ले सकती है।
कैसे दें सामाजिक अनुभव:
- बच्चों को स्थानीय झुग्गियों में जाकर कपड़े या भोजन बाँटने में शामिल करें
- अस्पताल में मरीज़ों के लिए फल या फूल देने की प्रेरणा दें
- पौधारोपण कार्यक्रमों में भाग लेने दें
- प्राकृतिक आपदाओं में सहायता हेतु दान अभियान में योगदान करने को प्रेरित करें
5 धार्मिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
धर्मों में परोपकार का स्थान
भारत की सभी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में परोपकार को महत्त्व दिया गया है –
- हिंदू धर्म: “परहित सरिस धर्म नहिं भाई।”
- इस्लाम: ज़कात देने की परंपरा।
- सिख धर्म: सेवा का भाव।
- ईसाई धर्म: प्रेम और सेवा का सन्देश।
इन धार्मिक मूल्यों को बच्चों को कहानियों और गतिविधियों के माध्यम से समझाया जा सकता है।
6 परोपकार हेतु कहानियों और प्रेरक प्रसंगों का उपयोग
कहानियाँ बच्चों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ती हैं।
- महात्मा गांधी का जीवन
- विवेकानंद जी का परोपकार भाव
- अब्दुल कलाम की सादगी और सेवा
- अन्ना हजारे, मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व
इनकी कहानियाँ प्रेरणा देती हैं और बच्चों को अच्छे कार्यों के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
7 तकनीक का सकारात्मक उपयोग
सोशल मीडिया और परोपकार
आज के बच्चे तकनीक से जुड़े हैं।
- उन्हें प्रेरित करें कि वे ऑनलाइन परोपकारी अभियानों में भाग लें
- यूट्यूब या ब्लॉग्स पर परोपकार आधारित वीडियो देखें
- स्वयं छोटे वीडियो बनाकर दूसरों को प्रेरित करें
महत्वपूर्ण बात यह है कि तकनीक का सकारात्मक दिशा में उपयोग सिखाया जाए।
8 परोपकार के छोटे-छोटे अभ्यास
बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि परोपकार बड़े स्तर पर ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों में भी होता है –
- किसी वृद्ध को रास्ता पार कराना
- क्लास के कमजोर विद्यार्थी की मदद करना
- जलपात्र में पक्षियों के लिए पानी रखना
- भोजन की बर्बादी न करना और जरूरतमंद को भोजन देना
- घर के काम में माता-पिता की सहायता करना
9 पुरस्कार नहीं, आत्मसंतोष पर ज़ोर
बच्चों को यह समझाना आवश्यक है कि परोपकार के लिए कोई पुरस्कार नहीं, बल्कि आत्मसंतोष ही सबसे बड़ा फल है। यह ‘गिव एंड टेक’ नहीं, बल्कि ‘गिव एंड ग्रो’ का भाव है।
10 निष्कर्ष
परोपकार केवल एक भाव नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक शैली है। यदि हम बचपन में ही अपने बच्चों के मन में यह बीज बो दें, तो वे बड़े होकर ऐसे वटवृक्ष बनेंगे जो अपने नीचे दूसरों को छाया, फल और सुरक्षा देंगे।
यह माता-पिता, शिक्षक और समाज की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि बच्चों को एक बेहतर और मानवीय दृष्टिकोण देने की दिशा में हम प्रयास करें।
लेखक परिचय
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com
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