देव शयनी एकादशी (ग्यारस) : महत्व, कथा, व्रत विधि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
भारतीय संस्कृति में व्रत-त्योहारों का विशेष स्थान रहा है। प्रत्येक पर्व न केवल धार्मिक भावनाओं को समर्पित होता है बल्कि समाज को एकजुट करने आत्मानुशासन सिखाने और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का माध्यम भी बनता है। वर्षा ऋतु के आगमन के साथ आने वाली देव शयनी एकादशी जिसे हरिशयनी एकादशी, पद्मा एकादशी या आषाढ़ शुक्ल एकादशी भी कहा जाता है हिंदू पंचांग की प्रमुख एकादशियों में से एक है। यह दिन न केवल भगवान विष्णु की आराधना के लिए विशेष माना जाता है, बल्कि इसे चातुर्मास के शुभारंभ के रूप में भी जाना जाता है।
देव शयनी एकादशी का परिचय-
देव शयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। इस दिन से भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और चार महीनों तक क्षीर सागर में शयन करते हैं। यह चार महीनों की अवधि चातुर्मास कहलाती है जो कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) तक चलती है। इस अवधि को धार्मिक दृष्टि से अत्यंत पवित्र माना जाता है।
पौराणिक कथा-
पौराणिक ग्रंथों में वर्णित एक कथा के अनुसार—
सतयुग में राजा मांधाता का राज्य था। उनके राज्य में अकाल पड़ा। वर्षा नहीं हुई और प्रजा दुखी रहने लगी। राजा ने अनेक यज्ञ और तप किए परंतु कोई फल नहीं मिला। तब उन्होंने महर्षि अंगिरा से परामर्श किया। महर्षि ने कहा कि राज्य में पाप का प्रभाव बढ़ गया है, इसलिए वर्षा नहीं हो रही। उन्होंने राजा को आषाढ़ शुक्ल एकादशी का व्रत करने का सुझाव दिया। राजा ने पूरे विधि-विधान से व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उनके राज्य में पुनः वर्षा हुई और खुशहाली लौट आई।
धार्मिक महत्व-
1 भगवान विष्णु की आराधना का विशेष दिन-
देव शयनी एकादशी को श्रीहरि विष्णु का शयन दिवस माना जाता है। इस दिन उनकी पूजा करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।
2 चातुर्मास की शुरुआत-
चार पवित्र महीनों की शुरुआत इसी दिन से होती है। साधु-संत इस काल में प्रवास स्थगित कर एक स्थान पर निवास करते हैं।
3 मांगलिक कार्य वर्जित-
देव शयन काल में विवाह, गृह प्रवेश, उपनयन आदि मांगलिक कार्य नहीं किए जाते।
4 तुलसी विवाह का प्रतीकात्मक प्रारंभ-
तुलसी विवाह, जो कार्तिक शुक्ल एकादशी (देव उठनी एकादशी) को किया जाता है उसकी प्रतीकात्मक शुरुआत भी इसी दिन होती है।
व्रत विधि-
1 व्रत की तैयारी-
व्रती को एक दिन पूर्व यानी दशमी तिथि को सात्विक आहार लेकर संयमपूर्वक दिन व्यतीत करना चाहिए।
रात्रि को भगवान विष्णु के नामों का स्मरण करते हुए विश्राम करना चाहिए।
2 एकादशी दिनचर्या-
प्रातः सूर्योदय से पूर्व स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
घर में गंगाजल छिड़ककर शुद्ध वातावरण बनाएं।
भगवान विष्णु का ध्यान कर व्रत का संकल्प लें।
3 पूजन विधान-
विष्णु जी की प्रतिमा या चित्र के समक्ष दीप जलाकर फूल, धूप, चंदन, तुलसी पत्र अर्पित करें।
“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप करें।
विष्णु सहस्त्रनाम, गीता, और विष्णु पुराण का पाठ करें।
4 रात्रि जागरण-
रात्रि में भजन-कीर्तन करते हुए जागरण करें। यह संपूर्ण फलदायी माना गया है।
5 द्वादशी पर पारण-
अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण करें। अन्न दान करें एवं ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें।
प्रमुख नाम और स्थान-
हरिशयनी एकादशी- क्योंकि यह भगवान हरि (विष्णु) के शयन का दिन है।
पद्मा एकादशी- पद्म पुराण में वर्णित इस एकादशी का यही नाम है।
देवदिवाली पूर्व ग्यारस- देव उठनी एकादशी से पहले की यह ग्यारस है।
प्रमुख स्थल जहां यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है-
स्थान विशेषता
पंढरपुर (महाराष्ट्र) वारकरी संप्रदाय की पंढरपुर यात्रा इसी दिन पूर्ण होती है।
बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी चारधामों में विशेष पूजन और उत्सव होते हैं।
वृंदावन, मथुरा भागवत कथा, रासलीला एवं भजन संध्या का आयोजन होता है।
चातुर्मास का वैज्ञानिक पक्ष-
1 ऋतु परिवर्तन और स्वास्थ्य-
यह काल मानसून का होता है, जब जलवायु में जीवाणुओं की वृद्धि होती है। व्रत और सात्विक आहार शरीर को संक्रमण से बचाते हैं।
2 शारीरिक शुद्धि-
उपवास और संयमित जीवनशैली पाचन तंत्र को सुधारती है।
3 मानसिक अनुशासन-
ध्यान, जाप और सत्संग व्यक्ति को मानसिक रूप से स्थिर और सकारात्मक बनाते हैं।
4 पर्यावरण अनुकूलता-
यात्रा निषेध, जल संरक्षण और आहार संयम पर्यावरण की रक्षा करते हैं।
आध्यात्मिक लाभ-
मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
जन्म-जन्म के पाप नष्ट होते हैं।
पुण्य फल सौ यज्ञों के बराबर माना गया है।
विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ से चित्त निर्मल होता है।
लोक परंपराएं-
1 गुजरात और राजस्थान में ग्यारस व्रत-
घरों में झूले सजाए जाते हैं, भगवान को पंखा झुलाया जाता है।
2 कृष्ण भक्तों का उत्साह-
वृंदावन और मथुरा में यह दिन राधा-कृष्ण की आराधना के लिए भी विशेष माना जाता है।
3 वारकरी आंदोलन (महाराष्ट्र)-
लाखों वारकरी संत विट्ठल मंदिर में दर्शन हेतु पंढरपुर पहुंचते हैं।
4 सांस्कृतिक आयोजन-
कथावाचन, भजन मंडलियों द्वारा संकीर्तन और दान-पुण्य की परंपरा।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-
देव शयनी एकादशी व्यक्ति को—
जीवन में ठहराव और आत्मनिरीक्षण का अवसर देती है।
मन को अनावश्यक इच्छाओं से विरक्त करती है।
आत्म-संयम और श्रद्धा जैसे गुणों को प्रबल करती है।
आधुनिक समाज में प्रासंगिकता-
यद्यपि आज के समाज में तकनीकी प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी है, फिर भी देव शयनी एकादशी जैसे पर्व—
आध्यात्मिक संतुलन बनाए रखते हैं।
सामाजिक एकता को बढ़ाते हैं।
प्राकृतिक अनुशासन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
निष्कर्ष-
देव शयनी एकादशी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि जीवन में अनुशासन, आत्मनिरीक्षण, संयम और पर्यावरण के प्रति जागरूकता का प्रतीक है। यह हमें यह सिखाती है कि चार महीनों तक अपने भीतर झाँकने, आत्मा की आवाज सुनने और सामाजिक दायित्व निभाने का समय है।
आइए, इस देव शयन दिवस पर हम सभी संकल्प लें कि—
हम जीवन में संयम और साधना अपनाएंगे।
पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य पर ध्यान देंगे।
समाज में प्रेम, शांति और सेवा का वातावरण बनाएंगे।
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हरि शयनोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
ब्लॉगर- http://badrilal995.blogspot.com
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