25 अग॰ 2024

भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का अस्तित्व


भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का अस्तित्व

भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का अस्तित्व


भारतीय दर्शन में, विशेष रूप से हिन्दू धर्म में, आत्मा को अविनाशी और शाश्वत सत्य माना जाता है, जो पुनर्जन्म के चक्र से गुजरती है। आत्मा एक दार्शनिक और आध्यात्मिक अवधारणा है इसे परमात्मा या ब्रह्मा से जोड़ा जाता है, और माना जाता है कि आत्मा का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना और परमात्मा में विलीन हो जाना है।

भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा को आंतरिक चेतना, आध्यात्मिक तत्व, या जीवन की ऊर्जा के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसे जीवन का सार, अस्तित्व की गहराई और व्यक्ति के चरित्र का मर्म माना जाता है। आत्मा को न केवल शारीरिक अस्तित्व से परे माना जाता है, बल्कि इसे अजर-अमर भी माना जाता है। यह वह तत्व है जो मृत्यु के बाद भी बना रहता है, और पुनर्जन्म या मोक्ष की प्रक्रिया से गुजरता है।

आत्मा शरीर एवं इन्द्रियों से भिन्न है। शरीर आत्मा नहीं है, क्योंकि इसको अपनी चेतना नहीं है। आत्मा इन्द्रियों से भी भिन्न है, कि कल्पना, स्मृति इत्यादि मानसिक व्यापार इन्द्रियों के कार्य नहीं है। आत्मा मन से भी भित्र है, क्योंकि मन अणु स्वरूप है जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। आत्मा विज्ञानों का प्रवाह भी नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर स्मृति की उत्पत्ति असम्भव होगी। नैयायिकों के अद्वैतियों की भांति आत्मा को स्वप्रकाश चैतन्य भी नहीं माना है। शुद्ध चैतन्य नामक कोई पदार्थ नहीं है तथा चैतन्य के लिए किसी न किसी आश्रय द्रव्य का होना अनिवार्य है।आत्मा एक द्रव्य है तथा चैतन्य उसका एक गुण है। आत्मा ज्ञान नहीं है बल्कि ज्ञाता है तथा भोक्ता है।

चैतन्य आत्मा का का एक गुण है, परन्तु यह आत्मा का स्वरूप नहीं है। आत्मा में चैतन्य का संचार तभी होता है जब इसका सम्पर्क मन, इन्द्रियों एवं बाह्य वस्तुओं के साथ होता है। इस सम्पर्क के अभाव में आत्मा में चैतन्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है। शरीर मुक्त रहने पर आत्मा में ज्ञान का अभाव पाया जाता है। अतएव चैतन्य आत्मा का एक आगन्तुक गुण है।

अलग-अलग संस्कृतियों और धर्मों में के अनुसार आत्मा को जीवन की ऊर्जा, चेतना, और अस्तित्व का मूल तत्व माना जाता है। आत्मा एक जटिल और गूढ़ अवधारणा है, जो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, और दार्शनिक विचारधाराओं में अलग-अलग रूपों में व्याख्यायित की गई है। इसे मानव अस्तित्व के सबसे महत्वपूर्ण और शाश्वत तत्व के रूप में देखा जाता है, जो जीवन के अर्थ और मृत्यु के बाद जीवन के प्रश्नों का केंद्र बिंदु है। आत्मा के सिद्धांत पर आधारित विचारों ने मानवता को सदियों से प्रेरित किया है, और यह कई धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में केंद्रीय भूमिका निभाती है। जैसे-

1 हिन्दू धर्म के अनुसार -

हिन्दू धर्म में आत्मा को अत्मन कहा जाता है, और इसे शाश्वत, अविनाशी और अद्वितीय माना जाता है। आत्मा को ब्रह्मा जो कि परमात्मा है, का अंश माना जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार, आत्मा का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है, जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। आत्मा को कर्म, धर्म, और पुनर्जन्म के सिद्धांतों से जोड़ा गया है, और माना जाता है कि व्यक्ति के कर्म उसके अगले जन्म और आत्मा की प्रगति को निर्धारित करते हैं।

2 बौद्ध धर्म के मतानुसार-

बौद्ध धर्म में आत्मा की अवधारणा थोड़ी अलग है। बौद्ध धर्म अनात्म या स्व-रहितता का सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जिसका अर्थ है कि कोई स्थायी आत्मा नहीं होती। इसके बजाय, बौद्ध धर्म में पाँच स्कंधों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान) की एक श्रृंखला के रूप में व्यक्तित्व को देखा जाता है। यह दृष्टिकोण आत्मा की स्थायित्व की धारणा को चुनौती देता है और यह सिखाता है कि व्यक्ति का अस्तित्व निरंतर परिवर्तनशील है।

3 इस्लाम के मतानुसार-

इस्लाम में आत्मा को रूह कहा जाता है और इसे अल्लाह की ओर से दिया गया जीवन का एक विशेष तत्व माना जाता है। रूह को अमर और शाश्वत माना जाता है और इस्लामी विश्वास के अनुसार आत्मा को मृत्यु के बाद पुनर्जीवित किया जाएगा और उसे उसके कर्मों के आधार पर न्याय मिलेगा। इस्लाम में आत्मा का महत्व इस बात में निहित है कि यह व्यक्ति के अस्तित्व का मूल आधार है और यह सीधे अल्लाह के साथ उसके संबंध को परिभाषित करता है।

4 ईसाई धर्म के मतानुसार-

ईसाई धर्म में आत्मा को ईश्वर द्वारा सृजित और शाश्वत माना जाता है। आत्मा को व्यक्ति की आंतरिक चेतना और ईश्वर के साथ उसके संबंध का प्रतीक माना जाता है। ईसाई धर्म सिखाता है कि आत्मा शारीरिक मृत्यु के बाद भी जीवित रहती है और उसे स्वर्ग या नरक में न्याय मिलेगा। आत्मा का महत्व व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन में निहित है, और इसे ईश्वर के साथ उसके अनन्त संबंध के रूप में देखा जाता है।

5. दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार-

दार्शनिक दृष्टिकोण से आत्मा की अवधारणा को विभिन्न तरीकों से समझाया गया है। प्राचीन ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने आत्मा को अमर और शाश्वत माना और इसे ज्ञान और सत्य के स्रोत के रूप में देखा। अरस्तू ने आत्मा को एक सजीव प्राणी के सार के रूप में परिभाषित किया जिसे उसने फॉर्म कहा। आधुनिक दार्शनिकों ने आत्मा की अवधारणा पर गहन चर्चा की है, जिसमें इसे चेतना, पहचान, और अस्तित्व के संदर्भ में देखा गया है।

6. आत्मा और विज्ञान-

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आत्मा की अवधारणा विवादास्पद रही है। विज्ञान में आत्मा के अस्तित्व का कोई ठोस प्रमाण नहीं है और इसे अक्सर एक आध्यात्मिक या दार्शनिक अवधारणा के रूप में ही देखा जाता है। हालाँकि, न्यूरोसाइंस और चेतना के अध्ययन में कुछ वैज्ञानिकों ने आत्मा की अवधारणा की पुनर्व्याख्या की है जिसमें इसे मानसिक प्रक्रियाओं और चेतना के रूप में समझा गया है। 

7. आत्मा की व्यावहारिक समझ -

आत्मा की अवधारणा जीवन के विभिन्न पहलुओं में गहरी जड़ें रखती है। यह न केवल धार्मिक और दार्शनिक विचारों में बल्कि नैतिकता, नैतिक निर्णयों और जीवन के उद्देश्य की खोज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आत्मा का विचार व्यक्ति को एक आंतरिक शक्ति और उद्देश्य की भावना देता है और यह उसे जीवन के गहरे और जटिल प्रश्नों का सामना करने में मदद करता है।

भरतीय न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक ज्ञाता, कर्ता, नित्य, निरवयव एवं अविनाशी है। आत्मा कर्म नियम के अधीन है। आत्मा अनन्त, विभु है।

आत्मा के अस्तित्व के लिए प्रमाण निम्नानुसार हैं-

न्याय दर्शन आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कतिपय युक्तियों का आश्रय लेता है-

1. नैयायिकों ने इच्छा एवं द्वेष के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इच्छा का कारण होता है अतीत में उस प्रकार की वस्तु से जो सुख प्राप्त हुआ उसकी स्मृति। इस इच्छा से यह सिद्ध होता है कि जिस आत्मा ने अतीत में किसी वस्तु को देखकर सुखद अनुभूति प्राप्त की थी वह वर्तमान में भी समान वस्तु को देखकर उस प्राप्त सुख का स्मरण करती है। द्वेष का कारण एवं आधार भी यही होता है। अतः स्थायी आत्मा के अभाव में इच्छा या द्वेष सम्भव नहीं।

2. नैयाविकों ने सुख तथा दुःख के आधार पर भी आत्मा को सिद्ध किया है। किसी पदार्थ विशेष को देखकर आत्मा को सुखद अथवा दुःखद अनुभूति का अनुभव होता है तब यहां आत्मा को अतीत में हुई उस प्रकार की घटना का स्मरण होता है।

3. नैयायिकों ने चार्वाक के इस मत का खण्डन किया है कि चैतन्य शरीर का गुण है। यदि चैतन्य को शरीर का गुण मानें तो, या तो, इसे अनिवार्य गुण या आगन्तुक गुण मानना होगा। चैतन्य शरीर का आवश्यक गुण रहने पर मृत्यु के पश्चात् भी उसमें यह विद्यमान रहता तथा जीवन काल में यह विनष्ट नहीं होता। मृत्यु एवं मूर्च्छा से यह प्रमाणित होता है कि शरीर चैतन्य रहित होता है। चैतन्य शरीर का आवश्यक गुण नहीं है। शरीर का आगन्तुक गुण चैतन्य को मानने पर यह शरीर से भिन्न कोई वस्तु हो जाएगी। अतः चैतन्य शरीर का नहीं बल्कि आत्मा का गुण है।

4. चैतन्य ज्ञानेन्द्रियों का भी गुण नहीं है, क्योंकि ज्ञानेन्द्रियां भौतिक तत्वों से निर्मित हैं। वे ज्ञान के साधन मात्र हैं। इन्हीं साधनों के माध्यम से आत्मा ज्ञान प्राप्त करती है। ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान भी नहीं है तथा जो ज्ञान नहीं है उसका गुण चैतन्य नहीं हो सकता है। आत्मा ज्ञाता है, अतः चैतन्य आत्मा का गुण है।

5. आत्मा को अस्वीकार करने पर स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा की सम्भावना समाप्त हो जाएगी।

नैयायिकों के अनुसार आत्मा का ज्ञान आप्त वचनों या अनुमान के द्वारा होता है, परन्तु नव्य-नैयायिकों के मत में आत्मा का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष के द्वारा होता है।

अतः आत्मा की अवधारणा मानवता के सबसे पुराने और गहरे प्रश्नों में से एक है। यह हमें हमारे अस्तित्व, हमारे कार्यों, और हमारे जीवन के अंतिम उद्देश्य पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, और दार्शनिक विचारधाराओं में आत्मा की अलग-अलग व्याख्याएं हैं, लेकिन सभी में यह एक बात सामान्य है: आत्मा जीवन का सार है। चाहे हम इसे शाश्वत चेतना मानें, जीवन की ऊर्जा के रूप में देखें, या पुनर्जन्म के चक्र का हिस्सा मानें, आत्मा की अवधारणा हमारे अस्तित्व की जटिलता और गहराई को उजागर करती है।


बद्री लाल गुर्जर

बनेडिया चारणान

  (टोंक)




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