7 सित॰ 2024

भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सम्बन्धी भ्रम क्या है


भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सम्बन्धी भ्रम क्या है ।



भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सम्बन्धी भ्रम क्या है-

भारतीय दर्शन में आत्मा से जुड़े भ्रम या मिथ्याधारणाओं का मुख्य रूप से संबंध अज्ञान से है। अविद्या के कारण मनुष्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहता है और उसे शरीर मन और भौतिक वस्तुओं से जोड़कर देखता है। आत्मा संबंधी प्रमुख भ्रांतियाँ निम्नलिखित हैं- 

1 आत्मा को शरीर मानना-

सबसे बड़ा भ्रम यह है कि व्यक्ति अपने शरीर को ही आत्मा समझ लेता है। जबकि भारतीय दर्शन के अनुसार, आत्मा शरीर से भिन्न और अजर-अमर है परंतु शरीर नश्वर है। लोग जन्म और मृत्यु को आत्मा का अंत मान लेते हैं, जो कि अज्ञान का परिणाम है।

2 आत्मा को मन या बुद्धि मानना-

कई लोग यह मानते हैं कि मन, बुद्धि या अहंकार ही आत्मा है लेकिन यह भी एक भ्रम है। मन और बुद्धि केवल आत्मा के उपकरण हैं जो संसारिक अनुभवों के माध्यम से कार्य करते हैं लेकिन स्वयं आत्मा उनसे परे है।

3 आत्मा का नाश होना-

यह भी एक बड़ा भ्रम है कि आत्मा का नाश हो सकता है या यह समय के साथ बदलती है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा अविनाशी है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि आत्मा को न जलाया जा सकता है न काटा जा सकता है न ही यह मृत्यु को प्राप्त होती है।

4 आत्मा की सीमितता-

लोग आत्मा को केवल व्यक्तिगत या सीमित मानते हैं, जबकि भारतीय दर्शन में आत्मा को असीम और सार्वभौमिक चेतना का अंश माना गया है। आत्मा किसी भी भौतिक या मानसिक सीमाओं से परे होती है।

5 आत्मा और संसार का एकाकार होना-

 संसार की माया या भौतिकता में फंसकर आत्मा को संसारिक वस्तुओं से जोड़ना भी भ्रम है। यह समझना कि सुख-दुःख लाभ-हानि और भौतिक संपत्ति आत्मा का हिस्सा हैं अज्ञान का परिणाम है।

आत्मा सम्बन्धी भ्रम- 

आत्मा प्रज्ञा का प्रथम प्रत्यय है। काण्ट ने कहा है कि ज्ञान की सम्बद्धता अनिवार्यता और सार्वभौमिकता प्रत्यक्ष के अभाव में सम्भव नहीं है, लेकिन इस वाक्य का आधार तार्किक है जो वास्तविक नहीं है। यही कहा जा सकता है कि ज्ञाता वह चेतना है जहां सारे विचार और प्रत्यय आते हैं। सभी मानसिक स्थितियों का यह तादात्य ज्ञाता है। निर्णय में उद्देश्य एवं विधेय रहते हैं। उद्देश्य के अभाव में ज्ञान सम्भव नहीं है। इस कारण उद्देश्य एवं विधेय की चेतना को भी एक होना चाहिए। ज्ञान के लिए ज्ञाता के रूप में आत्मा को स्वीकार करना आवश्यक होता है। आत्मा को स्थायी द्रव्य के रूप में, मान बैठते हैं जो सरल तथा अनेक कालों में व्याप्त है। इसलिए यह एकता है न कि अनेकता। इसका सम्बन्ध सभी सम्भाव्य देशीय वस्तुओं से है। इस प्रकार बौद्धिक मनोविज्ञान आत्मा के विषय से भिन्न वर्णन देता है तथा आत्मा के इस रूप का ज्ञान हमें नहीं हो पाता है। आत्मा को बौद्धिक मनोविज्ञान में वर्णित रूप में ग्रहण करने पर आत्मा सम्बन्धी भ्रम होता है। आत्मा के स्थायी एवं नित्य रूप का ज्ञान नहीं होता है बल्कि अन्तः निरीक्षण के आधार पर अनुभूति होती है जिसे आनुभविक मनोविज्ञान कहा गया है। यहां आत्मा को परिवर्तनशील क्षणिक मानसिक प्रक्रियाओं का समूह कहा जाता है। अनुभव के द्वारा हमें स्थायी एवं नित्य रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है तथा इसे प्रज्ञा के आधार पर हम जानने का प्रयास करते हैं। यहाँ  आत्मा के ज्ञान को बौद्धिक मनोविज्ञान कहा गया है। वह आनुभ‌विक मनोविज्ञान से सर्वथा भिन्न है जिसे काण्ट ने युक्तिपूर्ण नहीं माना है क्योंकि यह विश्वास पर आधारित है।

बौद्धिक मनोविज्ञान के अनुसार -

  • आत्मा द्रव्य है।

  • गुण की दृष्टि से आत्मा सरल है।

  • आत्मा में एकत्व भाव है।

  • आत्मा सरल निरवयव एवं अमर है।

लेकिन इस आत्मा को सरल स्थायी एवं अविनाशी कहना उचित नहीं है। प्रत्ययों के आधार पर आत्मा की अमरता को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। ज्ञान की अनिवार्यता एवं सार्वभौमिकता के आधार पर स्थायी ज्ञाता रूपी चेतना को स्वीकार कर लिया जाता है। निश्चित पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई परम ज्ञाता है क्योंकि इसे स्वीकार करने का अर्थ है ज्ञाता को ज्ञेय स्वीकारना। डेकार्ट की उक्ति भी आत्मा को सिद्ध नहीं कर पाती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रज्ञात्मक आत्मा को नहीं जाना जा सकता है। इसे जानने का दावा करना अतीन्द्रिय भ्रम को आमन्त्रण देना है।

प्रज्ञा का विरोधाभास हम बाह्य विश्व के समग्र ज्ञान को जानने का प्रयास करते हैं इसे विश्व विज्ञान कहा गया है। विश्व को उसकी समग्रता में जानने का प्रयास किया जाता है जिसका प्रत्यक्ष हमें नहीं होता। इस कारण हमारे ज्ञान में दोष उत्पन्न होता है। ऐसा अपनी सीमा के उल्लंघन करने के कारण होता है। यहां पक्ष एवं विरोध समान रूप से उचित प्रतीत होते हैं तथा इनके सम्बन्ध में विद्यमान विरोधी तत्वों को ही प्रज्ञा का विरोधाभास कहते हैं। यह विरोधाभास चार प्रकार के हैं-

परिमाणात्मक-

यदि सृष्टि आदि और अन्त नहीं है तो यह अनादि एवं अनन्त है अर्थात् अब तक अनन्त घटनाएं घट चुकी हैं तथा अनन्त घटनाओं का अन्त हुआ। अनन्त का अन्त विरोधाभास है। इससे बचने के लिए विश्व को काल में आदि मानना होगा तथा ऐसा स्वीकार करने पर इसका अन्त स्वाभाविक है। पुनः यदि यह सीमित नहीं है तो असीमित है अर्थात् यह असंख्य वस्तुओं का संघात है, जिसके लिए अनन्त काल की आवश्यकता होगी जो असम्भव है। अतएव, विश्व देश में सीमित होगा।

यदि विश्व अनादि एवं अनन्त नहीं है तो यह सादि एवं सान्त होगा। शून्य काल से विश्व की सृष्टि नहीं हो सकती, इसलिए यह कहना आवश्यक है कि विश्व का न कोई आदि है न अन्त। यदि विश्व देश में असीमित नहीं है तो वह सीमित है। लेकिन विश्व के अतिरिक्त कोई अन्य दिक् है ही नहीं। तब यहां यह कहना होगा कि यह शून्य से आवृत है। शून्य से कोई भी चीज आवृत नहीं होती है। इस कारण यह कहना अनिवार्य है कि विश्व देश में असीमित है।

गुणात्मक विरोधाभास-

यदि सावयव द्रव्य का निर्माण सरल परमाणुओं से नहीं है तो सावयव पदार्थ के नष्ट होने पर सभी कुछ का नाश हो जाएगा तथा कुछ भी शेष नहीं बचेगा। सावयव द्रव्य आकस्मिक है तथा परमाणु स्थायी एवं नित्य हैं, इस कारण परमाणुओं के अभाव में कुछ भी सत्य नहीं है।

यदि परमाणु को सत्य स्वीकार करें तो ये दिक् में सत्य होंगे, जिसमें अंश विद्यमान होगा। अंशयुक्त वस्तुएं विभाजित होती हैं, जिस कारण नित्य अणुओं की सरलता को हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं। अतएव परमाणुओं की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

संबंधात्मक विरोधाभास-

यदि कारण-कार्य के रूप में विश्व की व्याख्या करें तो प्रत्येक घटना का कारण पूर्ववर्ती घटना होगी तथा ऐसा मानने से अनावस्था दोष होगा। इस दोष से बचने के लिए यह मानना पड़ेगा कि विश्व

की उत्पत्ति किसी स्वतन्त्र कारण से हुई है। पुनः यदि कोई स्वतन्त्र कारण है तो वह अवश्य ही अकारण होगा लेकिन हम जानते हैं कि कोई भी घटना अकारण नहीं होती

निरपेक्ष निरपेक्ष विरोधाभास-

विश्व की सापेक्ष एवं आकस्मिक घटनाओं की व्याख्या के जिए निरपेक्ष एवं अनिवार्य कारण को स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। यह अनिवार्य एवं निरपेक्ष सत्ता विश्व में ही है, क्योंकि घटनाओं का आरम्भ काल विशेष में ही होता है जो विश्व का गुण है। इस कारण अनिवार्य एवं निरपेक्ष कारण विश्व में ही है।

विश्व में या विश्व से परे अनिवार्य एवं निरपेक्ष सत्ता का ज्ञान हमें नहीं होता है। विश्व प्रातिभासिक है जो नियतिवाद के नियमों से बंधा हुआ है। कोई घटना निरपेक्ष नहीं है। यदि कोई सत्ता विश्व में है तो अवश्य ही यह देश एवं काल में बंधा होगा, जिसे स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष नहीं कह सकते हैं। इसलिए, न तो इस विश्व के अन्दर और न ही विश्व से परे कोई निरपेक्ष एवं अनिवार्य सत्ता है।

अतः इन भ्रमों से मुक्ति पाने का मार्ग आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार है, जो योग ध्यान और ज्ञानमार्ग के अभ्यास से प्राप्त हो सकता है।


बद्री लाल गुर्जर

बनेडिया चारणान

(टोंक)

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

NICE SIR

badrilal995.blogspot.com ने कहा…

Thanks sir

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