जैन दर्शन के अनुसार जीव व मोक्ष का अस्तित्व क्या है
जैन दर्शन के अनुसार जीव का अस्तित्व अनादि और अनंत माना गया है। जैन दर्शन में जीव (आत्मा) को चेतन द्रव्य कहा गया है जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। यह जीव अनश्वर, अविनाशी और अजर-अमर होता है।
जैन दर्शन के अनुसार जीव शरीर से भिन्न है और शरीर के साथ उसका संबंध कर्म के कारण होता है। जीव के मुख्य गुण ज्ञान, दर्शन, सुख, और वीर्य होते हैं। जीव को संसार में बंधन और मोक्ष के रूप में दो अवस्थाओं में देखा जाता है। बंधन अवस्था में जीव कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करता है और मोक्ष अवस्था में जीव कर्मों से मुक्त होकर अपनी शुद्ध और स्वतंत्र अवस्था में रहता है।
इस प्रकार जैन दर्शन में जीव को स्वतंत्र, अनंत, और अनादि अस्तित्व वाला माना गया है जो कर्म के प्रभाव से संसार में बंधा होता है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है।
जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए निम्नलिखितप्रमाण प्रस्तुत किए गये है-
1. जैनियों ने कहा है कि किसी भी वस्तु का ज्ञान उनके गुणों को देखकर ही होता है। आत्मा का ज्ञान भी उसके गुण सुख, दुःख, चेतना की प्रत्यक्ष अनुभूति के आधार पर होता है। इन गुणों के आधार पर कह सकते हैं कि जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है।
2.जैनियों के अनुसार शरीर को इच्छानुसार संचालित किया जा सकता है जिस प्रकार किसी मशीन को चलाने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है उसी तरह शरीर रूपी मशीन को संचालित करने वाला जीव है।
3.विभिन्न इन्द्रियां ज्ञान के साधन हैं जो स्वयं किसी वस्तु का ज्ञान प्रदान नहीं कर सकती है। अतएव किसी ऐसी सत्ता का होना आवश्यक है जो विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करती हो तथा यही सत्ता जीव है।
4.जड़ द्रव्य के निर्माण के लिए उपादान एवं निमित्त कारणों की आवश्यकता होती है। शरीर का निर्माण जड़ द्रव्य के संघात से हुआ है तथा प्रत्येक शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गल कणों की आवश्यकता होती है। ये पुद्गल कण स्वयं शरीर का निर्माण नहीं कर सकते हैं। इन पुद्गल कणों को विशेष रूप एवं आकार प्रदान करने के लिए निमित्त कारण की आवश्यकता होती है तथा यह निमित्त कारण जीव है। अतएव शरीर के निर्माण के लिए जीव की सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य है।
जैन दर्शन के अनुसार बन्धन एवं मोक्ष -
जैन दर्शन का मुख्य उद्देश्य है बन्धन से मुक्ति। अतएव इस सन्दर्भ में बन्धन क्या है इसका कारण क्या है तथा किस प्रकार इससे मुक्ति सम्भव है एवं मुक्ति का स्वरूप क्या है? इत्यादि प्रश्नों के सम्बन्ध में जैन दर्शन में विस्तारपूर्वक विवेचना की गई है।
बन्धन - प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों ने बन्धन का अर्थ बार-बार जन्म ग्रहण करने के रूप में लिया है। ऐसा होने से व्यक्ति को नानाविध सांसारिक दुःखों एवं कष्टों को झेलना पड़ता है। जैनियों के अनुसार जीव को ही बन्धन का दुःख भोगना पड़ता है। जीव चेतन द्रव्य है जो स्वभावतः पूर्ण एवं अनन्त है। शरीर धारण करने से इसके समक्ष अनेक प्रकार की कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं तथा इन कठिनाइयों एवं बाधाओं के दूर होने पर ही उसे अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो पाती है। बाधाओं के हट जाने पर जीव अपने अनन्त ज्ञान एवं अन्तर्निहित गुणों को प्राप्त कर लेता है। जीव को ही दुःखों की अनुभूति होती है तथा उसे जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इस जन्म ग्रहण करने के कारण की समाप्ति के बाद ही जीव बन्धन मुक्त हो पाता है।
जैन दर्शन में जीवों को स्वभावतः अनन्त कहा गया है। जिसमें पूर्णताएं निहित होती हैं परन्तु बन्धन की अवस्था में ये पूर्णताएं ढक जाती है तथा जीव के स्वाभाविक गुण अभिभूत हो जाते हैं। जैनियों के मतानुसार जीव शरीर के साथ संयोग की कामना करता है। शरीर का निर्माण पुद्गल कणों से हुआ है। अतएव जीव का पुद्गल से संयोग होता है। जीव का पुद्गल से संयोग होना ही बन्धन कहलाता है। अज्ञान के कारण जीव में वासनाएं घर कर लेती हैं जिनकी संख्या चार है तथा वे है मान, क्रोध, लोभ एवं माया। वासनाओं को कुप्रवृत्तियां भी कहते हैं। इन चार प्रकार की वासनाओं के फलस्वरूप जीव शरीर ग्रहण करने को उत्सुक रहता है जिस कारण वह पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। इन पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करने के कारण उन कुप्रवृत्तियों को कषाय कहते हैं। जीव किस प्रकार के पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करेगा यह उसके पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार निर्धारित एवं निश्चित होता है। तदनुरूप जीवों के शरीर की रूपरेखा कर्मों के आधार पर निर्धारित होती है। जीव शरीर का निमित्त कारण है तथा पुद्गल उपादान कारण।
माता-पिता से प्राप्त शरीर आकस्मिक नहीं है। कर्म से ही यह निश्चित हो जाता है कि किसी व्यक्ति का जन्म किस वंश या परिवार में होगा। कर्मों के आधार पर ही शरीर का रूप, रंग, आकार, आयु, ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय की संख्या तथा उनके विशेष धर्म नियन्त्रित होते हैं। समष्टिगत दृष्टिकोण से कर्म सभी वासनाओं का समूह है जिसका परिणाम समस्त धर्म विशिष्ट शरीर है परन्तु व्यष्टिगत दृष्टिकोण से शरीर का विशेष धर्म विशेष कर्म का परिणाम है। इस प्रसंग में जैनियों ने अनेक प्रकार के कर्मों को स्वीकार किया है जैसे -
1.आयु कर्म-
इसके द्वारा मनुष्य की आयु का निर्धारण होता है।
2.ज्ञानावरणीय कर्म-
इस प्रकार के कर्म ज्ञान में बाधक प्रतीत होते हैं।
3.अंतराय कर्म-
ये आत्मा की स्वाभाविक शक्ति को रोकते हैं।
4.गोत्र कर्म-
यह कर्म मनुष्य के उच्च अथवा निम्न परिवार में जन्म का निर्धारण करता है।
5.वेदनीय कर्म-
इस प्रकार के कर्म सुख एवं दुःख की वेदनाएं उत्पन्न करते हैं।
6.दर्शनावरणीय कर्म-
यह कर्म मनुष्य के विश्वासों को नष्ट करता है।
इस प्रकार क्रोध, मान, माया एवं लोभ ही वे कुप्रवृत्तियां हैं जो व्यक्ति को बन्धन में डालती हैं तथा इन्हें कषाय कहा गया है क्योंकि ये पुद्गल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। जीव की ओर कितने एवं किस प्रकार के पुद्गल कण आकृष्ट होगे यह जीव के कर्म अथवा वासना पर निर्भर करता है। ऐसे पुद्गल कण को कर्म पुद्गल कहते हैं। कभी-कभी इसे कर्म भी कहा जाता है। जीव की और जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह होता है उसे आश्रव कहते हैं। अतः जैनियों के अनुसार कषायों के कारण कर्मानुसार जीव या पुद्गगल से
आक्रान्त होना ही बन्धन है। जैन दर्शन में यह स्वीकार किया गया है कि दूषित मनोभाव ही बन्धन का मूल कारण है तथा जीव का बन्धन मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही होता है।
जैनियों ने बन्धन के दो भेदों की स्वीकार किया है-
भाव बन्ध -
जिस क्षण से आत्मा में चार प्रकार की कुप्रवृत्तियां निवास करने लगती हैं उसी क्षण से आत्मा बन्धनग्रस्त हो जाती है तथा बन्धन की इस अवस्था को भाव बन्ध कहते हैं। भाव बन्ध की अवस्था में मन में दूषित विचार घर करते हैं।
द्रव्य बन्ध-
जीव एवं पुद्गल के संयोग को द्रव्य बन्ध कहा जाता है। इस अवस्था में पुद्गल कण आत्मा में प्रविष्ट हो जाते हैं।
मोक्ष-
जीव एवं पुद्गल का संयोग बन्धन कहलाता है। अतएव जीव का पुद्गल से वियोग ही मोक्ष कहलाता है। पुद्गल से वियौग तभी सम्भव है जब नए पुद्गल का आश्रव बन्द हो जाए तथा जो जीव में पूर्व से प्रविष्ट है वह विनष्ट हो जाए। नए पुद्गल को जीव की ओर प्रवाहित होने से रोकना संवर कहलाता है तथा पुराने पुद्गल कणों के क्षय को निर्जरा कहा जाता है। आगामी पुद्गल कणों को रोककर तथा संचित पुद्गल कणों को नष्ट कर जीव कर्म पुद्गल से मुक्त हो जाता है तथा वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
जीव में पुद्गल का आश्रव उसके अन्तर्निहित कषायों के कारण होता है तथा इन कषायों का कारण अज्ञान है। आत्मा एवं अन्य द्रव्यों का वास्तविक ज्ञान नहीं होने के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति के मन में क्रोध, मान, माया एवं लोभ उत्पन्न होते हैं। अज्ञान का नाश ज्ञान की प्राप्ति से ही सम्भव है। इस कारण जैन दर्शन में मोक्ष के लिए सम्यक् ज्ञान को अनिवार्य माना गया है। सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति पथ-प्रदर्शक के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास के द्वारा ही होती है। इसकी प्राप्ति के लिए जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास का होना आवश्यक है। श्रद्धा एवं विश्वास के भाव को सम्यक् दर्शन कहा गया है। यह मोक्ष प्राति का द्वितीय सोपान है। तत्पश्चात् व्यक्ति को अपनी वासना, इन्द्रिय एवं मन को संयमित करना होता है जिसे सम्यक् चरित्र कहते हैं।
जैन दर्शन में मोक्ष प्राप्त करने के लिए सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन एवं सम्यक् चरित्र तीनों के समन्वित रूप को स्वीकार किया गया है। किसी एक के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
सम्यकु दर्शन-
यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा का होना ही सम्यक दर्शन कहलाता है।
सम्यक ज्ञान-
सम्यक ज्ञान में जीव एवं अजीव के मूल तत्वों का विशेष ज्ञान प्राप्त होता है।
सम्यक चरित्र-
अहित कार्यों का त्याग एवं हित कार्यो का आचरण ही सम्यक चरित्र कहलाता है।
अतः जब कोई व्यक्ति इन तीनों मार्गों का पालन करता है और कर्मों से मुक्त हो जाता है तो वह मोक्ष की प्राप्ति करता है। मोक्ष जैन धर्म का अंतिम लक्ष्य है और इसे प्राप्त करने के लिए आत्मा को संसारिक बंधनों से मुक्त होना पड़ता है।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
2 टिप्पणियां:
NICE
Thanks sir
एक टिप्पणी भेजें