योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं। इसे पातंजल दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। आत्मसाक्षात्कार के इच्छुक व्यक्ति के लिए योग दर्शन एक अमूल्य निधि है। इस दर्शन के अनुसार मोक्ष मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए विवेक ज्ञान के साथ-साथ योगाभ्यास को भी परमावश्यक माना गया है। यह दर्शन जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल देता है।
अष्टांगिक मार्ग या योग -
योग दर्शन के अनुसार बन्धन का मूल कारण अविवेक है। पुरुष एवं प्रकृति के भेद का ज्ञान नहीं होने से आत्मा बन्धन में पड़ती है। इसी कारण मोक्ष के लिए तत्वज्ञान पर बल दिया गया है। जब तक मनुष्य के चित्त में विकार भरा रहता है तथा उसकी बुद्धि दूषित रहती है तब तक उसे तत्वज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। मुक्ति के लिए प्रज्ञा अनिवार्य है। प्रज्ञा का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा यह जानना कि आत्मा विमुक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप है तथा शरीर एवं मन से भिन्न है।
योग के लिए आठ सोपानों को स्वीकार किया है गया हैं जिन्हें अष्टांग मार्ग या अष्टांगिक योग कहते हैं।
1. यम -
यह योग का प्रथम अंग है। बाह्य एवं आन्तरिक इन्द्रियों के संयम की क्रिया को यम कहते हैं। इसके पांच अंग हैं जो निम्नानुसार हैं -
(i) अहिंसा-
किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाना अहिंसा कहलाता है।
(ii) सत्य-
मिथ्या वचन का परित्याग ही सत्य कहलाता है। ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए जो सभी प्राणियों का हित साधक हो तथा ऐसे वचनों का परित्याग करना चाहिए जिनसे किसी का अहित हो।
(iii) अस्तेय-
चौर्य वृत्ति का परित्याग अस्तेय है। दूसरों की सम्पत्ति के अपहरण की मनोवृत्ति का त्याग करना अस्तेय कहलाता है।
(iv) ब्रह्मचर्य-
विषय-वासना से दूर रहना तथा इन्द्रियों को संयम में रखना ही ब्रह्मचर्य है।
(v) अपरिग्रह-
लोभवश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना ही अपरिग्रह कहलाता है।
उपर्युक्त पांच यमों के पालन में किसी भी प्रकार के अपवाद को स्वीकार नहीं किया गया है। मन को सुदृढ़ बनाने के लिए इनका पालन आवश्यक है। यमों के पालन से मनुष्य दूषित प्रवृत्तियों से स्वयं को बचाता है तथा योग मार्ग के आगे के पथ की ओर अग्रसर होता है।
2. नियम-
यह योग का दूसरा अंग है। सदाचार का पालन करना ही नियम है। नियम के भी पांच अंग हैं -
(i) शौच-
बाह्य एवं आंतरिक शुद्धि को शौच कहते हैं। इसके अन्तर्गत स्नान, पवित्र भोजन, मानसिक शुद्धि, मैत्री, करूणा एवं मुदिता शामिल हैं।
(ii) सन्तोष-
उचित प्रयास से जितना ही प्राप्त हो उससे सन्तुष्ट रहना सन्तोष कहलाता है। शरीर के लिए अत्यन्त आवश्यक से अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए।
(iii) तप-
सर्दी, गर्मी आदि सहने का अभ्यास एवं कठिन व्रत का पालन तप कहलाता है।
(iv) स्वाध्याय-
नियमपूर्वक धर्मग्रन्थों का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। ज्ञानी पुरुषों के कथन का भी अनुशीलन करना इसमें शामिल है।
(v) ईश्वर-प्रणिधान-
ईश्वर का ध्यान करना तथा उन पर स्वयं को छोड़ देना ही ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है।
यम एवं नियम में अन्तर यह है कि यम निषेधात्मक सद्गुण है जबकि नियम भावात्मक सद्गुण है।
3. आसन-
यह योग का तीसरा अंग है। इसका अर्थ है शरीर को ऐसी स्थिति में रखना जिससे निश्चल होकर सुखपूर्वक कुछ देर तक रहा जा सके। यहां शरीर एवं चित्त दोनों को स्थिर रखा जाता है। शारीरिक कष्ट से बचने के लिए ही आसन को अपनाया जाता है ताकि ध्यान की अवस्था में शारीरिक कष्ट से व्यवधान उत्पन्न न हो। आसन अनेक प्रकार के होते हैं तथा इसकी शिक्षा किसी योग्य गुरु के द्वारा ग्रहण की जानी चाहिए। आसन साधक को अपने शरीर पर नियन्त्रण रखने का अभ्यास कराता है। आसन के द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं शारीरिक अनुशासन प्राप्त होता है। यह शरीर को व्याधियों से मुक्त रखता है। आसन ही शरीर को समाधि क्रिया के योग्य बनाता है।
4. प्राणायाम-
इस योग का अर्थ है श्वास का नियन्त्रण। प्राणायाम समाधि में पूर्णतया सहायक है। इसके तीन भेद हैं -
(i) पूरक-
गहरी सांस लेना पूरक प्राणायाम कहलाता है।
(ii) कुम्भक-
श्वास को भीतर रोकना कुम्भक प्राणायाम है।
(iii) रेचक-
नियमित विधि से श्वास छोड़ना रेचक प्राणायाम है।
प्राणायाम का अभ्यास किसी सिद्ध गुरु से ही प्राप्त करना चाहिए। इसके अभ्यास से हृदय पुष्ट होता है जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है। प्राणायाम के द्वारा मन एवं शरीर की दृढ़ता आती है। समाधि की अवस्था में जाने के लिए यह क्रिया अत्यन्त ही सहायक है।
5. प्रत्याहार-
यह योग का पांचवां अंग है तथा इसका अर्थ है इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाना एवं उसे अपने मन के वश में करना। जब इन्द्रियां पूर्णतया मन के वश में आ जाती हैं तब ये अपने स्वाभाविक विषयों से हटकर मन की ओर लग जाती हैं। इस अवस्था में इन्द्रियों के सामने सांसारिक विषय रहते हुए भी उससे वे विलग रहती हैं। यह अवस्था अत्यन्त ही कठिन है तथापि असम्भव नहीं। प्रत्याहार को अपनाने के लिए दृढ़ संकल्प एवं इन्द्रिय निग्रहकी आवश्यकता होती है।
6. धारणा-
यह योग का छठा अंग है। चित्त को अभीष्ट विषय पर लगाना ही धारणा कहलाता है। यह विषय पदार्थ भी हो सकता है या अपना शरीर भी हो सकता है। यह आन्तरिक अनुशासन का प्रथम सोपान है। यहां चित्त किसी एक वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति के बाद साधक ध्यान के योग्य हो जाता है।
7. ध्यान-
यह योग का सातवां अंग है। ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय का निरन्तर मनन अर्थात् उसी विषय को लेकर विचार का निरन्तर प्रवाह। इससे विषय का स्पष्ट ज्ञान होता है। इसके पूर्व विषय का आंशिक बोध होता था। तत्पश्चात् निरन्तर ध्यान के द्वारा सम्पूर्ण चित्त आ जाता है तथा उस वस्तु के वास्तविक स्वरूप का दर्शन होता है। योगी के मन में ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है।
8. समाधि-
यह योग का अन्तिम एवं आठवां सोपान है। इस अवस्था में चित्त ध्येय विषय में इतना लीन हो जाता है कि वह उसमें तन्मय हो जाता है। चित्त को अपना कुछ ज्ञान नहीं रहता है। ध्यान की अवस्था में ध्येय विषय एवं ध्यान की क्रिया अलग-अलग प्रतीत होती हैं, लेकिन समाधि की अवस्था में ध्यान की क्रिया का अलग अनुभव नहीं होता है। बल्कि वह ध्येय विषय में ही निमग्न हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है। योग दर्शन में समाधि को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। समाधि का महत्व इस कारण से है कि इसके द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है।
योग के आठ अंगों में से धारणा, ध्यान एवं समाधि का सम्बन्ध योग से साक्षात् रूप में है जबकि प्रथम पांच का योग से साक्षात् सम्बन्ध नहीं है। प्रथम पांच सोपान अन्तिम तीन के लिए साधक को तैयार करता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार को योग का बहिरंग साधन कहा गया है जबकि धारणा, ध्यान एवं समाधि को अन्तरंग साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अष्टांग योग के पालन से चित्त का विकार नष्ट हो जाता है तथा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को जानने एवं पहचानने लगती है। आत्मा को ज्ञान की प्राप्ति होती है जिस कारण वह बन्धन से मुक्त हो जाती है।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
2 टिप्पणियां:
शानदार लेख हेतु बधाई हो sir
Thanks sir
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