7 अग॰ 2025

खुद को स्वीकार करना ही आत्म-ज्ञान की पहली सीढ़ी है

 

खुद को स्वीकार करना ही आत्म-ज्ञान की पहली सीढ़ी है

लेखक- बद्री लाल गुर्जर
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हर मनुष्य के भीतर एक खोज चलती रहती है-स्वयं को समझने की जीवन के उद्देश्य को जानने की और अंततः शांति पाने की। इस खोज का पहला कदम है खुद को स्वीकार करना। जब हम स्वयं को जैसा हैं वैसा स्वीकार करना सीख जाते हैं तब आत्म-ज्ञान का द्वार धीरे-धीरे खुलने लगता है।

स्वीकृति आत्मा का पहला स्पर्श है और आत्म-ज्ञान उसकी पूर्ण अनुभूति।
यह लेख इसी यात्रा पर केंद्रित है- स्वयं की स्वीकृति से आत्म-ज्ञान तक की।

1आत्म-ज्ञान की परिभाषा और भूमिका-

आत्म-ज्ञान का शाब्दिक अर्थ है- आत्मा का ज्ञान या स्वयं को जानना। यह न तो किसी शास्त्र का विषय है न किसी परीक्षा का। यह एक जीवंत अनुभव है- जो हर व्यक्ति को अपने ही भीतर करना होता है।

परंतु आत्म-ज्ञान तक पहुँचने से पहले जो सबसे जरूरी कार्य है वह है खुद को स्वीकार करना- अपनी कमियों कमजोरियों अच्छाइयों और विरोधाभासों को बिना किसी भय या शर्म के अपनाना।

2 खुद को न स्वीकारने की स्थिति और उसका प्रभाव

बहुत से लोग खुद से ही भागते हैं। वे दिखावे आदर्शों या समाज की अपेक्षाओं के पीछे छिप जाते हैं। जब व्यक्ति स्वयं को स्वीकार नहीं करता तो उसके भीतर कई तरह के मानसिक विकार जन्म लेते हैं।

कुछ प्रमुख परिणाम-

  • आत्म-हीनता की भावना
  • दूसरों से तुलना का दबाव
  • नकारात्मक सोच और अवसाद
  • आत्म-विश्वास की कमी
  • जीवन में असंतुलन और द्वंद्व

जब तक व्यक्ति अपने भीतर के सच को नहीं अपनाता तब तक वह स्वयं से दूर रहता है और आत्म-ज्ञान भी दूर ही रहता है।

3 खुद को स्वीकार करना क्या होता है?

स्वीकृति का अर्थ है-

  • मैं जैसा हूँ उसे पूरी ईमानदारी से देखना
  • अपने भावों विचारों व्यवहार और अनुभवों को नकारना नहीं
  • खुद से झूठ न बोलना
  • सुधार की इच्छा रखना परन्तु नफरत नहीं करना

स्वीकृति आत्म-सम्मान की पहली सीढ़ी है। जब हम स्वयं को अपनी सारी सीमाओं के साथ स्वीकारते हैं तभी भीतर से सच्ची करुणा और समझ उत्पन्न होती है।

4. आत्म-स्वीकृति से आत्म-ज्ञान तक की यात्रा-

कदम-दर-कदम यात्रा-

खुद से ईमानदारी

  • आत्म-ज्ञान की शुरुआत स्व-ईमानदारी से होती है।
  • जब हम स्वीकारते हैं कि मैं डरता हूँ मैं कभी-कभी ईर्ष्या करता हूँ मैं गलतियाँ करता हूँ तब हम अपने मन को खोलते हैं।

ii भीतर की छाया को स्वीकारना

  • हर इंसान के भीतर उजाला और अंधकार दोनों होता है।
  • जिसे हम नकारते हैं वही हमें छिपकर नियंत्रित करता है।
  • स्वीकृति से वह छाया उजाले में आती है और शांत होती है।

iii भावनाओं को अपनाना

  • क्रोध दुःख डर ये सभी हमारी स्वाभाविक भावनाएँ हैं।
  • इन्हें दबाने से नहीं समझने और अपनाने से आत्म-ज्ञान पनपता है।

iv भूतकाल को स्वीकारना

  • पुराने अनुभव, अपराधबोध, पछतावे ये सभी आत्म-स्वीकृति की राह में रुकावट बनते हैं।
  • जब हम अपने अतीत को अपनाते हैं तभी हम वर्तमान में जी पाते हैं।

5 आत्म-स्वीकृति के लाभ

खुद को स्वीकारना कोई कमजोरी नहीं बल्कि आत्मिक परिपक्वता का प्रतीक है। इससे जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन आते हैं-

मानसिक शांति

  • अब हमें खुद से लड़ना नहीं पड़ता।
  • भीतर का द्वंद्व शांत हो जाता है।

आत्म-सम्मान

  • हम दूसरों की प्रशंसा या आलोचना से डगमगाते नहीं।
  • हमारे मूल्य हमारे भीतर से आते हैं।

सच्चे संबंध

  • जब हम अपने असली स्वरूप को स्वीकारते हैं तभी दूसरों से ईमानदार रिश्ता बनता है।

आत्म-विश्वास

  • हम अपने निर्णयों में स्पष्ट होते हैं।
  • डर और संदेह घटने लगता है।

विकास की प्रेरणा

  • स्वीकृति कोई निष्क्रिय स्थिति नहीं बल्कि एक प्रेरक शक्ति है जो सुधार की राह दिखाती है।

6 खुद को स्वीकारना-

अक्सर हम सोचते हैं कि आध्यात्मिकता का मतलब है- पूजा ध्यान त्याग। परंतु सच्ची आध्यात्मिकता वहीं से शुरू होती है जब हम खुद को बिना मुखौटे के देख पाते हैं।

जैसे-

  • भगवान बुद्ध ने स्वयं के भीतर के दुःख को स्वीकारा तभी निर्वाण की खोज कर सके।
  • महावीर स्वामी ने अहिंसा की शुरुआत आत्म-अवलोकन और आत्म-स्वीकृति से की।
  • संत कबीर ने कहा जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।

7 खुद को स्वीकारने की राह में आने वाली बाधाएँ

सामाजिक अपेक्षाएँ

  • समाज एक आदर्श छवि प्रस्तुत करता है और हम उसमें फिट होने की कोशिश में असली स्वरूप को दबा देते हैं।

आत्म-आलोचना

  • भीतर का आलोचक हमेशा हमें दोषी ठहराता है।

बचपन की शर्तें

  • बचपन से मिली डाँट अस्वीकृति और तुलना हमारी आत्म-छवि को कमजोर कर देती हैं।

डर- अगर मैंने खुद को वैसा मान लिया तो?

  • लोग सोचते हैं कि अगर मैं अपनी गलतियों को स्वीकार लूँ तो मैं कमजोर या निकम्मा हो जाऊँगा पर यह भ्रम है।

8. खुद को स्वीकार करने के व्यावहारिक उपाय

स्व-चिंतन और आत्म-वार्ता

  • दिन में 10 मिनट अकेले बैठें और खुद से सवाल करें-
  • आज मैंने क्या महसूस किया? 
  • क्या मैं कुछ छिपा रहा हूँ?

दर्पण तकनीक-

  • आईने में देख कर खुद से कहें मैं तुम्हें पूरी तरह स्वीकार करता हूँ।

भावनाओं को नाम देना-

  • जैसे- मैं डर रहा हूँ मुझे गुस्सा आ रहा है इससे भावनाएं खुलती हैं और दबती नहीं।

सहज लेखन-

  • बिना संपादन के रोज़ अपने अनुभव विचार और भावनाएं कागज़ पर उतारें।

सकारात्मक आत्म-संवाद

  • अपने भीतर के आलोचक को समझाएं मैं अभी अधूरा हूँ पर स्वीकार्य हूँ।

9 खुद को स्वीकार कर समाज को बदलना

जब व्यक्ति अपने स्वरूप को स्वीकारता है तो वह दूसरों को भी वैसा ही करने की स्वतंत्रता देता है।

समाज में परिवर्तन:

  • कम आलोचना,अधिक समझ
  • सतही दिखावे की बजाय प्रामाणिकता
  • संबंधों में गहराई और करुणा
  • शिक्षा और नेतृत्व में ईमानदारी


10. निष्कर्ष-

खुद को स्वीकारना कोई साधारण बात नहीं। यह एक अभ्यास संघर्ष और प्रेम का संगम है। जब हम खुद को पूरी तरह स्वीकार लेते हैं तब आत्म-ज्ञान की दिशा में पहला, पर सबसे मजबूत कदम उठाते हैं।

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