भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा
भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा विविध और गहन है तथा इसे विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत किया गया है। कुछ दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का आधार और परम सत्य माना गया है जबकि अन्य में ईश्वर की भूमिका पर विचार भिन्न है। भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा को मुख्य रूप से आस्तिक जो वेदों को मानते हैं और नास्तिक जो वेदों को नहीं मानते दर्शनों के आधार पर समझा जा सकता है।
ईश्वर का भारतीय दर्शन में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका कारण यह है कि भारतीय दर्शन पर धर्म की अमिट छाप है। ईश्वर में विश्वास को ही साधारणतया धर्म कहा जाता है। धर्म से प्रभावित रहने के कारण भारतीय दर्शन में ईश्वर के सम्बन्ध में अत्यधिक चर्चा है। ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न मत भारतीय विचार धारा में व्याप्त हैं। ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए अनेक युक्तियों का भारतीय दर्शन में समावेश हुआ है। अब भारतीय दर्शन में वर्णित ईश्वर सम्बन्धी विचार की व्याख्या अपेक्षित है।
भारतीय दर्शन का प्रारम्भ बिन्दु वेद है। इसलिए ईश्वर सम्बन्धी विचार की व्याख्या के लिये सर्वप्रथम हमें वेद-दर्शन पर दृष्टिपात करना होगा।
वेद-दर्शन में अनेक देवताओं के विचार निहित हैं। वैदिक काल के ऋषियों ने अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, उषा, पृथ्वी, मरुत, वायु, वरुण, इन्द्र, सोम आदि देवताओं को आराधना का विषय माना। इन देवताओं की उपासना के लिए गीतों की रचना हुई है। वेदिक देवगणों का कोई स्पष्ट व्यक्तित्व नहीं है। अनेकेश्वरवाद के समान वैदिक देवगण अपनी-अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते। इस प्रकार वेद में अनेकेश्वरवाद के उदाहरण मिलते हैं। अनेकेश्वरवाद का अर्थ अनेक ईश्वरों में विश्वास है। अनेकेश्वरवाद वेद का स्थायी धर्म नहीं रह पाता है। अनेकेश्वरवाद से वैदिक धर्म प्रारम्भ होता है।
देवताओं की संख्या अधिक रहने के फलस्वरूप वैदिक काल के लोगों के सम्मुख यह समस्या उत्पन्न हुई कि इनमें किस देवता को श्रेष्ठ मानकर आराधना की जाय? अनेकेश्वरवाद धार्मिक चेतना की माँग को पूरा करने में असमर्थ है। धार्मिक चेतना हमें एक ही देवता को श्रेष्ठ तथा उपास्य मानने के लिए बाध्य करती है। वैदिक काल में उपासना के समय अनेक देवताओं मे कोई एक देवता है जो उपास्य बनता है सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जब इन्द्र की पूजा होती है तब उसे ही महान् तथा शक्तिशाली समझा जाता है। प्रो० मैक्समूलर ने वैदिक धर्म को हीनोथीज्म कहा है। इसे अवसरवादी एकेश्वरवाद भी कहा गया है। इसके अनुसार उपासना के समय एक देवता को सबसे बड़ा देवता माना जाता है। हीनोथीज्म का रूपान्तर एकेश्वरवाद में हो जाता है। इसके अनुसार विभिन्न देवता एक ही ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं। अतः वेद में अनेकेश्वरवाद हीनोथीज्म तथा एकेश्वरवाद के उदाहरण मिलते हैं।
वेद के पश्चात् उपनिषद् दर्शन में ईश्वर का स्थान गौण प्रतीत होता है। उपनिषद् में ब्रह्म को चरम तत्त्व के रूप में स्वीकारा गया है। वेद के विभिन्न देवतागण पृष्ठभूमि में विलीन हो जाते हैं तथा ब्रह्म एवं आत्मा उपनिषद्-दर्शन में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते हैं। देवताओं को यहाँ ब्रह्म का प्रकाशित रूप माना गया है। देवतागण अपनी सत्ता के लिए ब्रह्म पर निर्भर रहते हैं। ईश्वर का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। अनेक देवताओं को उपनिषद्-दर्शन में द्वारपाल के रूप में चित्रित किया गया है।
उपनिषद्-दर्शन में ईश्वर के वस्तुनिष्ठ विचार का जिसमें उपासक तथा उपास्य के बीच भेद वर्तमान रहता है खंडन हुआ है। वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना यह सोचकर करता है कि वह तथा ईश्वर भिन्न हैं वह ज्ञान से शून्य है। यद्यपि ईश्वरवाद उपनिषद् की विचारधारा से संगति नहीं रखता है फिर भी श्वेताश्वेतर तथा कठ उपनिषदों में ईश्वरवाद की झलक मिलती है। यहाँ ईश्वर को मनुष्य से पृथक् माना गया है। तथा ईश्वर की भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मूल साधन माना गया है।
उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूपों का वर्णन मिलता है 1 पर ब्रह्म
2 अपर-ब्रह्म ।
पर-ब्रह्म को ब्रह्म तथा अपर-ब्रह्म को ईश्वर कहा गया है। पर-ब्रह्म असीम, निर्गुण, निष्प्रपज्व है। तथा अपर-ब्रह्म इसके विपरीत सीमित सगुण व सप्रपज्व है। ईश्वर को उपनिषदों में सबको प्रकाश देने वाला तथा कर्मों का अधीष्ठाता माना गया है। वह स्वयंभू तथा जगत् का कारण है। माया उसकी शक्ति है। उपनिषदों में ईश्वर को विश्वव्यापी तथा विश्वातीत दोनों माना गया है। उपनिषद् के ईश्वर विचार को जान लेने के बाद भगवद्गीता के ईश्वर विचार की जानकारी आवश्यक है। भगवद्गीता में ईश्वरवाद तथा सर्वेश्वरवाद का संयोजन पाते हैं। गीता में ईश्वरवाद तथा सर्वेश्वरवाद में वस्तुतः कोई विरोध नहीं दीखता है। गीता में विशेष रूप से विश्व रूप दर्शन नामक अध्याय में सर्वेश्वरवाद का चित्रण मिलता है। ईश्वर को अक्षर परम ज्ञानी जगत का परम विधान तथा सनातन पुरुष कहा गया है। ईश्वर विश्व में पूर्णतः व्याप्त है। जिस प्रकार दूध में उज्जवलता व्याप्त है उसी प्रकार ईश्वर विश्व में निहित है। यद्यपि गीता में सर्वेश्वरवाद मिलता है फिर भी गीता की मुख्य प्रवृत्ति ईश्वरवाद है। ईश्वरवाद को गीता का केन्द्र बिन्दु माना गया है। ईश्वर परम सत्य है। वह विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है तथा जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख दुःख प्रदान करता है। ईश्वर कर्मफल दाता है। वह सबका पिता माता मालिक तथा स्वामी है। वह सुन्दर तथा भयानक है। गीता के कुछ श्लोकों में ईश्वर को विश्व में व्याप्त तथा कुछ में विश्व से परे माना गया है। गीता के अनुसार ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है। यद्यपि ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है फिर भी वह असीम है। गीता में ईश्वर का व्यक्तित्व एवं असीमता के बीच समन्वय हुआ है। ईश्वर उपासना का विषय है। भक्तों के प्रति ईश्वर की विशेष कृपा रहती है। वह उनके अपराधों को भी क्षमा कर सकता है। भगवान भक्तों को समस्त धर्मों को छोड़कर अपनी शरण में जाने का उपदेश देते हैं। गीता अवतारवाद को सत्य मानती है। जब विश्व में नैतिक और धार्मिक पतन होता है तब ईश्वर विश्व में उपस्थित होता है और विश्व में सुधार लाता है। अवतारवाद गीता की अनुपम देन है।
गीता में ईश्वर को पुरुषोत्तम कहा गया है। वह परम ब्रहा है। ईश्वर को प्रकृति और पुरुष से परे माना गया है। परम-ब्रह्म के दो स्वरुपों-व्यक्त और अव्यक्त का गीता में वर्णन किया गया है। परमात्मा के व्यक्त स्वरूप का वर्णन निम्नलिखित उद्धरणों में दीखता है। प्रकृति मेरा स्वरूप है।
1 जीवात्मा मेरा ही सनातन अंग हैं।
2 यह परमात्मा अनादि निर्गुण और अव्यक्त है इसलिए शरीर में स्थित रहकर भी न तो वह कुछ करता है और न लिपायमान होता है।
यद्यपि गीता में परमात्मा के दोनों स्वरूपों का वर्णन मिलता है फिर भी गीता में व्यक्त स्वरुप की अपेक्षा अव्यक्त स्वरूप को महत्त्वपूर्ण माना गया है। गीता में भगवान ने स्पष्ट रूप में कहा है कि मेरा व्यक्त स्वरूप मायिक है तथा अव्यक्त रूप जो इन्द्रियों को अगोचर है वही मेरा सच्चा स्वरूप है। महाभारत जिसका गीता अंश है में भी अव्यक्त ब्रह्म को व्यक्त ब्रह्म की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी अव्यक्त और नित्य है। उसे सिद्ध पुरूष पहचानते हैं।
गीता के पश्चात् भारतीय दर्शन की रूपरेखा में परिवर्तन होता है। दर्शन-सम्प्रदाय का विभाजन आस्तिक तथा नास्तिक वर्गों में होता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त आस्तिक दर्शन तथा चार्वाक, जैन, बौद्ध नास्तिक दर्शन के वर्गों में रखे गये हैं। आस्तिक दर्शनों के ईश्वर विचार जानने के पूर्व नास्तिक दर्शनों का ईश्वर सम्बन्धी विचार जानना आवश्यक होगा।
चार्वाक-दर्शन में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। वह ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है क्योंकि ईश्वर का कोई प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। ईश्वर प्रत्यक्ष से परे होने के कारण असत् है क्योंकि प्रत्यक्ष ही ज्ञान का एकमात्र साधन है। चार्वाक ईश्वर के प्रति निर्मम शब्दों का प्रयोग करता है। जब ईश्वर नहीं है तब हर बात के पीछे ईश्वर को घसीट लाना अमान्य है। ईश्वर से प्रेम करना एक काल्पनिक वस्तु से प्रेम करना है। ईश्वर से डरना भ्रम है। अतः चार्वाक अनीश्वरवाद का जोरदार समर्थन करता है।
बौद्ध-दर्शन और जैन-दर्शन में सैद्धान्तिक रूप से अनीश्वरवाद को अपनाया गया है। दोनों दर्शनों में ईश्वर के अस्तित्व का निषेध हुआ है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को ईश्वर के सम्बन्ध में जानने से अनुत्साहित किया है। ईश्वर से प्रेम करना एक ऐसी रमणी से प्रेम करने के तुल्य है जिसका अस्तित्व ही नहीं है। ईश्वर को विश्व का कारण मानना भ्रामक है। संसार प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम से संचालित होता है। बुद्ध ने अपने शिष्यों को ईश्वर पर नहीं निर्भर रहने का आदेश दिया। उन्होंने आत्मदीपो भव का उपदेश देकर शिष्यों को आत्म निर्भर रहने को प्रोत्साहित किया।
बौद्ध-दर्शन की तरह जैन दर्शन में भी अनीश्वरवाद पर बल दिया गया है। ईश्वरवादियों के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अनेक युक्तियों का आश्रय लिया गया है। जैन उन युक्तियों की बुटियों की ओर संकेत करता हुआ ईश्वर के अस्तित्व को अप्रमाणित करता है। जैन-दर्शन के अनुसार ईश्वर को विश्व का स्रष्टा मानना भ्रान्तिमूलक है। ईश्वर को स्रष्टा मान लेने से सृष्टि के प्रयोजन की व्याख्या नहीं हो पाती है। साधारणतः चेतन प्राणी जो कुछ भी करता है वह स्वार्थ से प्रेरित होकर करता है या दूसरों पर करूणा के लिए करता है। अतः ईश्वर को भी स्वार्थ या करुणा से प्रेरित होना चाहिए। ईश्वर स्वार्थ से प्ररित होकर सृष्टि नहीं कर सकता क्योंकि वह पूर्ण है। इसके विपरीत वह करुणा से प्रभावित होकर संसार का निर्माण नहीं कर सकता है क्योंकि सृष्टि के पूर्व करुणा का भाव उदय नहीं सकता। अतः ईश्वर विश्व का निर्माता नहीं है।
यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से बौद्ध दर्शन में ईश्वर का खंडन हुआ है फिर भी व्यावहारिक रूप में ईश्वर का विचार किया गया है। महायान धर्म में बुद्ध को ईश्वर के रूप में माना गया है। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं। हीनयान धर्म अनीश्वरवादी धर्म होने के कारण लोकप्रिय नहीं हो सका। महायान धर्म ने ईश्वर के विचार को प्रस्तुत कर लोकप्रिय धर्म होने का गौरव प्राप्त किया है।
जैन-दर्शन में भी प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर का निषेध हुआ है फिर भी परोक्ष रूप में ईश्वर का विचार किया गया है। जैन-दर्शन में ईश्वर के स्थान पर तीर्थकरों को माना गया है। ये मुक्त होते हैं। जैन- दर्शन में पंच परमेष्टि को माना गया है। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु जैनों के पंचपरमेष्टि हैं। जहां तक ईश्वर विचार का सम्बन्ध है बौद्ध और जैन दर्शनों को एक ही घरातल पर रखा जाता है। दोनों दर्शनों में अनीश्वरवाद की मीमांसा पाते हैं।
न्याय-दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व पर बल दिया गया है। न्याय ईश्वरवादी है। ईश्वरवाद न्याय- दर्शन की अनुपम देन है। ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये नैयायिकों ने अनेक प्रमाणों का आश्रय लिया है। पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए जिन-जिन युक्तियों का प्रयोग हुआ है उन सभी युक्तियों का समावेश प्रायः न्याय के ईश्वर सम्बन्धी युक्तियों में है। ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय-दर्शन में निम्नलिखित युक्तियों का आश्रय लिया गया है-
1 कारणाश्रित तर्क-जगत् एक कार्य है। प्रत्येक कार्य का कोई चेतन कर्त्ता होना चाहिए। ईश्वर ही जगत् का चेतन कर्त्ता है। जिस प्रकार घड़े का निर्माण करने वाला कुम्हार होता है। उसी प्रकार जगत् का निर्माण करने वाला ईश्वर है। अतः ईश्वर अस्तित्ववान है। इस युक्ति में जगत् को कार्य मानकर ईश्वर को उसका कारण सिद्ध किया गया है।
2 जीवात्मा शुभ और अशुभ कर्मो के द्वारा धर्म तथा अधर्म को अर्जन करते हैं। शुभ कर्म से धर्म तथा अशुभ कर्म से अधर्म की उत्पत्ति होती है। धर्म का फल सुख तथा अधर्म का फल दुःख है। ईश्वर ही धर्म तथा अधर्म का अधिष्ठाता है। वह जीवात्मा को उनके धर्म तथा अधर्म के अनुरूप सुख एवं दुःख का वितरण करता है। इस प्रकार नैतिक जगत् के नियामक के रूप में ईश्वर की सत्ता है। यह ईश्वर के अस्तित्व के लिये 'नैतिक प्रमाण' है।
3 वेद एक प्रामाणिक रचना है। वेद की प्रामाणिकता का कारण यह है कि वेद की रचना ईश्वर ने की है। अतः वेद के रचयिता के रूप में ईश्वर की सत्ता प्रमाणित होती है।
4 वेद प्रमाण है। चूंकि वेद ईश्वर के अस्तित्व का कथन करते हैं इसलिये ईश्वर अस्तित्ववान है।
ईश्वर के स्वरुप के सम्बन्ध में न्याय-दर्शन में अत्यधिक चर्चा पाते हैं। ईश्वर विश्व का स्रष्टा है। वह शून्य से संसार की सृष्टि नहीं करता है। वह विश्व की सृष्टि नित्य परमाणुओं दिक् काल, आत्मा, मन के द्वारा करता है। यद्यपि ईश्वर विश्व का निर्माण अनेक द्रव्यों के माध्यम से करता है फिर भी ईश्वर की शक्ति सीमित नहीं हो पाती। इन द्रव्यों के साथ ईश्वर का वही सम्बन्ध है जो संबंध शरीर का आत्मा के साथ है। ईश्वर संसार का पोषक है। संसार उसकी इच्छानुसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक भी है। जब-जब ईश्वर विश्व में नैतिक और धार्मिक पतन पाता है तब-तब वह विध्वंसक शक्तियों के द्वारा विश्व का विनाश करता है। वह विश्व का संहार नैतिक और धार्मिक अनुशासन के लिये करता है। ईश्वर मानव का कर्म-फल-दाता है। मानव के शुभ अथवा अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर सुख अथवा दुःख प्रदान करता है। कर्मों का फल प्रदान कर ईश्वर जीवात्माओं को कर्म करने के लिये प्रेरित करता है। न्याय का ईश्वर व्यक्तित्पूर्ण है। ईश्वर में ज्ञान सत्ता और आनन्द निहित है। ईश्वर दयालु है। ईश्वर की श्री कृपा से मानव मोक्ष को अपनाने में सफल होता है। तत्त्व-ज्ञान के आधार पर ही मानव मोक्ष की कामना करता है। न्याय ईश्वर को अनन्त मानता है। वह अनन्त गुणों से युक्रू है।
न्याय की तरह वैशेषिक भी ईश्वरवाद का समर्थक है। वैशेषिक ने ईश्वर को एक आत्मा कहा है जो चैतन्य से युक्त है। वैशेषिक के मतानुसार आत्मा दो प्रकार की होती है-
1 जीवात्मा
2 परमात्मा
परमात्मा को ईश्वर कहा जाता है। ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है। वह विश्व का स्रष्टा, पालक एवं संहारक है।
सांख्य के समर्थकों में ईश्वर को लेकर कुछ वाद-विवाद है। सांख्य दर्शन के कुछ टीकाकार ईश्वरवादी हैं। इनमे विज्ञान भिक्षु मुख्य हैं। उनके मत से सांख्य अनीश्वरवादी नहीं है। सांख्य ने केवल इतना ही कहा है कि ईश्वर के अस्तित्व के लिये कोई प्रमाण नहीं है। ईश्वर असिद्ध है। इससे यह निष्कर्ष निकालना कि सांख्य अनीश्वरवादी है अमान्य जँचता है। इसके विपरीत सांख्य ईश्वरवादी है। विज्ञान भिक्षु का कहना है कि यद्यपि प्रकृति से समस्त वस्तुएँ विकसित होती हैं तथापि अचेतन प्रकृति को गतिशील करने के लिये ईश्वर के सान्निध्य की आवश्यकता होती है। उनके अनुसार युक्ति तथा शास्त्र दोनों से ही ऐसे ईश्वर की सिद्धि होती है। परन्तु सांख्य की यह ईश्वरवादी व्याख्या अधिक मान्य नहीं है। अधिकांश टीकाकारों ने सांख्य को निरीश्वरवादी ही माना है। ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध सांख्य ने अनेक युक्तियाँ दी हैं जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
1 संसार कार्य-श्रृखला है। अतः इसका कारण भी अवश्य होना चाहिए। परन्तु ईश्वर को विश्व का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि वह नित्य और अपरिवर्तनशील है। विश्व का कारण वही हो सकता है जो परिवर्तनशील एवं नित्य है। प्रकृति विश्व का कारण है क्योंकि वह नित्य होकर भी परिवर्तनशील है।
2 यदि ईश्वर की सत्ता को माना जाय तो जीवों की स्वतन्त्रता तथा अमरता खंडित हो जाती है। जीवों को ईश्वर का अंश नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनमें ईश्वरीय शक्ति का अभाव है। यदि उन्हें ईश्वर के द्वारा उत्पन्न माना जाय तो फिर उनका नश्वर होना सिद्ध होता है।
योग-दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये विभिन्न युक्तियों का प्रयोग हुआ है। इस स्थल पर योग दर्शन न्याय से अत्यधिक मिलता है। योग-दर्शन के ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-
1 अविच्छिन्नता का नियम-
ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करता है। ज्ञान के प्रसंग में छोटी-बड़ी मात्ला का भेद निहित है। ईश्वर के अन्दर ज्ञान की सबसे बड़ी माला निहित है। ईश्वर में सर्वज्ञाता की पराकाष्ठा है। अतः ईश्वर अस्तित्ववान है।
2 वेद प्रमाण है-
चूंकि वेद ईश्वर का वर्णन करते हैं इसलिए ईश्वर का अस्तित्व है। इस प्रकार शब्द प्रमाण के द्वारा ईश्वर की सत्ता प्रमाणित होती है।
3- ईश्वर प्रकृति में गति प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप प्रकृति की साम्यावस्था भंग होती है तथा विकास का प्रारम्भ होता है। प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जबकि ईश्वर जगत् का निष्क्रिय निमित्त कारण है। इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। ईश्वर के अस्तित्व पर बल देने के फलस्वरूप योग-दर्शन को सेश्वर सांख्य कहा गया है। ईश्वर एक विशेष प्रकार का पुरूष है जो स्वभावतः पूर्ण तथा अनन्त है। वह सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। वह लिगुणातीत है।
योग-दर्शन में ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है। चित्त वृत्तियों का निरोध योग-दर्शन का मुख्य लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति ईश्वर प्रणिधान से संभव है। ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है ईश्वर की भक्ति। इसलिये योग दर्शन में ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय माना गया है।
मीमांसा-दर्शन में ईश्वर को अत्यन्त ही तुच्छ स्थान प्रदान किया गया है। संसार की सृष्टि के लिये धर्म और अधर्म का पुरस्कार तथा दण्ड देने के लिये ईश्वर को मानना भ्रामक है। मीमांसा देवताओं को बलि प्रदान के लिये ही कल्पना करती है। उनकी उपयोगिता सिर्फ इसलिये है कि उनके नाम पर ही होम किया जाता है। देवताओं का अस्तित्व केवल वैदिक मन्त्रों में ही माना गया है। मीमांसा के देवताओं को महाकाव्य के अमर पालों की तरह माना गया है। अतः मीमांसा निरीश्वरवादी है। शंकर के अद्वैत वेदान्त में ईश्वर को व्यावहारिक दृष्टि से सत्य माना गया है। वह पारमार्थिक दृष्टि से सत्य नहीं है। शंकर एक माल ब्रह्म को ही पारमार्थिक दृष्टि से सत्य मानता है। शंकर ने ईश्वर को जगत् की तरह व्यावहारिक सत्ता के अन्दर रखा है।
ईश्वर को सिद्ध करने के लिए जितने परम्परागत तर्क दिये गये हैं शंकर उन तर्कों की आलोचना करता हुआ प्रमाणित करता है कि ईश्वर को तर्क के द्वारा सिद्ध करना असंभव है। शंकर ईश्वर के अस्तित्व को श्रुति के द्वारा प्रमाणित करता है। अब प्रश्न उठता है कि शंकर के दर्शन में ईश्वर का क्या विचार है। ब्रह्म, निर्गुण और निराकार है। बहा का प्रतिबिम्ब जब माया में पड़ता है तब वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वर इस प्रकार 'मायोपहित ब्रह्म' है। ईश्वर माया के द्वारा विश्व की सृष्टि करता है। माया ईश्वर की शक्ति है। ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है। वह उपासना का विषय है। वह कर्म नियम का अध्यक्ष है। जोवात्मा को कर्मों के अनुसार वह पुरस्कार तथा दंड प्रदान करता है। शंकर ने ईश्वर को विश्व में व्याप्त तथा विश्व से परे माना है। वह विश्वव्यापी तथा विश्वातीत है। शंकर के दर्शन में ईश्वर का महत्त्व है। ईश्वर ही सबसे बड़ी सत्ता है जिसका ज्ञान हमें हो पाता है।
रामानुज के विशिष्टाद्वैत वेदान्त में ईश्वर और ब्रहा को अभिन्न माना गया है। ब्रह्म ही ईश्वर है। ब्रडा ईश्वर होने के कारण सगुण है। वह पूर्ण है। वह जीवों को उनके शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार सुख, दुःख प्रदान करता है। वह कर्म फलदाता है। वह उपासना का विषय है। वह भक्तों के प्रति दयावान रहता है। ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष प्राप्य है। शंकर ब्रहा तथा ईश्वर में भेद करते हैं परन्तु रामानुज ब्रह्म को ही ईश्वर मानते हैं। शंकर ब्रह्म को निर्गुण मानते हैं परन्तु रामानुज ब्रह्म को सगुण मानते हैं। प्राचीन भारतीय दर्शन की तरह समसामयिक भारतीय दर्शन में भी ईश्वर-विचार पर अधिक प्रकाश डाला गया है। विवेकानन्द, अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, राधाकृष्णन्, महात्मा गांधी आदि विचारकों ने ईश्वर को अपने दर्शन का केन्द्र बिन्दु माना है। ईश्वरवादी परम्परा की झलक इनके दर्शनों में निहित है।
भारतीय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा को विभिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रस्तुत किया गया है। आस्तिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का कारण, पालनकर्ता और मोक्षदाता माना गया है जबकि नास्तिक दर्शनों में ईश्वर की उपस्थिति को नकारा गया है या उसकी भूमिका को सीमित किया गया है। हालांकि अधिकांश दर्शनों का अंतिम उद्देश्य आत्मा की मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति है चाहे वह ईश्वर के माध्यम से हो या व्यक्तिगत साधना के माध्यम से।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
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