सनातन धर्म और नैतिक दायित्व
धर्म संस्कृत शब्द धृ से बना है जिसका अर्थ है धारण करना या समर्थन करना। इस संदर्भ में धर्म वह शक्ति है जो संसार को, समाज को और व्यक्ति के जीवन को धारण और संतुलित करती है। धर्म शब्द का अर्थ व्यापक और गहन है जो न केवल धार्मिक आस्था तक सीमित है बल्कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू में नैतिकता, कर्तव्य और सच्चाई का पालन करने की प्रणाली को भी व्यक्त करता है। सनातन धर्म जिसे हिंदू धर्म के रूप में भी जाना जाता है विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। यह धर्म न केवल धार्मिक आस्थाओं का समूह है बल्कि यह एक जीवन जीने का तरीका, एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण और एक नैतिक दृष्टि भी प्रदान करता है। सनातन धर्म की अवधारणा यह है कि यह शाश्वत है अर्थात् इसका कोई आरंभ या अंत नहीं है। नैतिकता इस धर्म का अभिन्न हिस्सा है और इसे व्यक्ति के कर्म, आचरण और व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।
सनातन धर्म की परिभाषा-
सनातनबका अर्थ है शाश्वत या चिरकालिक। यह धर्म उन सिद्धांतों और नियमों का पालन करता है जो सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर उसके विनाश तक शाश्वत हैं। इस धर्म में वैदिक शास्त्र, उपनिषद, पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन प्रमुख है जो मनुष्य को न केवल आध्यात्मिक दिशा प्रदान करते हैं बल्कि उन्हें नैतिकता और धर्म के मार्ग पर चलने का संकेत भी देते हैं।
नैतिकता और धर्म-
सनातन धर्म में नैतिकता का महत्वपूर्ण स्थान है। धर्म के आठ अंगों में से नैतिकता जो धर्म और नियम के रूप में व्यक्त होती है प्रमुख हैं। इस धर्म के अनुसार नैतिक आचरण और कर्तव्यों का पालन करना मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। ये कर्तव्य व्यक्तिगत’ सामाजिक और आध्यात्मिक होते हैं।
1 नैतिक दायित्व-
नैतिक दायित्व को धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है जिसका अर्थ है कर्तव्य। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी जिम्मेदारियों का पालन करे और समाज तथा प्रकृति के प्रति आदर रखे। नैतिक दायित्वों को मुख्य रूप से चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है जो निम्नानुसार हैं-
स्वयं के प्रति कर्तव्य-
व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने शरीर, मन और आत्मा का सम्मान करना और उसे शुद्ध रखना चाहिए।
परिवार के प्रति कर्तव्य-
व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने माता-पिता, संतान और जीवन साथी के प्रति अपने दायित्वों का पालन करना चाहिए।
समाज के प्रति कर्तव्य-
व्यक्ति द्वारा स्वयं समाज के हित के लिए कार्य करना दूसरों की सहायता करना और समाज के नियमों का पालन करना चाहिए।
प्रकृति और परमात्मा के प्रति कर्तव्य-
व्यक्ति द्वारा स्वयं प्रकृति का संरक्षण करना और ईश्वर के प्रति आस्था रखनी चाहिए।
2 कर्म और नैतिकता-
कर्म का सिद्धांत सनातन धर्म का एक प्रमुख अंग है। यह मान्यता है कि व्यक्ति जो भी कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य प्राप्त होता है। यह सिद्धांत नैतिकता के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रत्येक कर्म को नैतिकता के पैमाने पर तौला जाता है।
धर्मग्रंथों में वर्णित है कि यदि व्यक्ति अपने कर्मों में नैतिकता का पालन नहीं करता है तो उसे उसके परिणामों का सामना करना पड़ता है चाहे वह इस जीवन में हो या अगले जन्म में।
नैतिकता के मूलभूत सिद्धांत-
सनातन धर्म में नैतिकता के कई मूलभूत सिद्धांत बताए गए हैं जो व्यक्ति के जीवन को उच्च आदर्शों की ओर प्रेरित करते हैं-
अहिंसा-
अहिंसा का अर्थ है हिंसा न करना या किसी भी प्रकार की शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक हिंसा से बचना। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांत है जो सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म सहित कई भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
अहिंसा के सिद्धांत-
1 शारीरिक अहिंसा-
इसका तात्पर्य किसी जीव को शारीरिक रूप से हानि न पहुँचाने से है। इसका पालन न केवल मनुष्यों के प्रति बल्कि सभी जीव-जंतुओं के प्रति भी करना आवश्यक है।
2 मानसिक अहिंसा-
यह विचारों और मानसिक स्थिति में अहिंसक रहने से संबंधित है। दूसरों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या, घृणा या हिंसक विचार रखना भी हिंसा के अंतर्गत आता है इसलिए मानसिक रूप से भी शांत और सहनशील रहना अहिंसा का हिस्सा है।
3 वाणी की अहिंसा-
अपनी वाणी से किसी को चोट न पहुँचाना भी अहिंसा का एक महत्वपूर्ण रूप है। कठोर और अपमानजनक शब्द भी हिंसा के रूप माने जाते हैं।
अहिंसा का महत्व-
1 आध्यात्मिक उन्नति-
अहिंसा को आत्मिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक माना गया है। जब व्यक्ति अहिंसा के मार्ग पर चलता है तो उसका मन शांत और संतुलित रहता है।
2 समाज में शांति-
अहिंसा समाज में शांति और सामंजस्य बनाए रखने का एक प्रमुख साधन है। जब लोग अहिंसक आचरण अपनाते हैं तो संघर्ष, युद्ध और द्वेष से बचा जा सकता है।
3 कर्तव्य पालन-
अहिंसा के सिद्धांत का पालन करना एक नैतिक कर्तव्य माना जाता है। यह हमें सिखाता है कि हर जीव के जीवन का सम्मान करें और उसे आहत करने से बचें।
4 महात्मा गांधी और अहिंसा-
महात्मा गांधी ने अहिंसा के सिद्धांत को अपने जीवन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का मूल आधार बनाया। उन्होंने इसे केवल एक धार्मिक या व्यक्तिगत आचरण के रूप में नहीं बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में भी प्रयोग किया। गांधीजी के अनुसार अहिंसा सत्य का अनुसरण करती है और सत्य ही परम शक्ति है।
सत्य-
सत्य का अर्थ है सच्चाई या वास्तविकता। यह वह चीज़ है जो वास्तविक, स्पष्ट और अटल होती है। सत्य का संबंध न केवल बाहरी जगत से है बल्कि यह आत्मा, विचार और अनुभव की भी गहराई में स्थित होता है। भारतीय दर्शन विशेषकर सनातन धर्म में सत्य को सबसे उच्चतम नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य माना गया है। जो व्यक्ति को जीवन में सत्य का पालन करना और सच्चाई के मार्ग पर चलने की सीख देता है।
सत्य के प्रमुख पहलू-
1 सत्य का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व-
सनातन धर्म में सत्य को ईश्वर का एक रूप माना गया है। उपनिषदों में कहा गया है सत्यमेव जयते यानी सत्य की ही विजय होती है। सत्य को जीवन के सबसे उच्चतम आदर्श के रूप में देखा जाता है जो व्यक्ति को आत्मिक उन्नति और मोक्ष की ओर ले जाता है।
महात्मा गांधी ने सत्य को अपने जीवन और सिद्धांतों का आधार बनाया था। उनके लिए सत्य केवल व्यक्तिगत ईमानदारी नहीं था बल्कि यह एक व्यापक नैतिक और सामाजिक सिद्धांत था जो अहिंसा और न्याय से जुड़ा था।
2 सत्य और जीवन का आचरण-
सत्य का पालन जीवन में सत्य बोलने और सत्य के मार्ग पर चलने से जुड़ा है। व्यक्ति के विचार, वचन और कर्म में ईमानदारी और सच्चाई होनी चाहिए।
वाणी में सत्य का अर्थ है कि व्यक्ति को हमेशा सच्ची और ईमानदार बातें कहनी चाहिए चाहे स्थिति कैसी भी हो। सत्य बोलने का एक नैतिक पक्ष है जिससे समाज में विश्वास और पारदर्शिता बनी रहती है।
3 सत्य और नैतिकता-
सत्य और नैतिकता का गहरा संबंध है। नैतिक आचरण का आधार सत्य ही होता है। सत्य का पालन करने वाला व्यक्ति न केवल समाज के नियमों का पालन करता है बल्कि उसे आत्मिक संतोष भी मिलता है।
भारतीय परंपरा में सत्य को धर्म, कर्म और मोक्ष के मार्ग में आवश्यक माना गया है। यह न केवल व्यक्ति के जीवन में संतुलन और सद्भावना लाता है बल्कि उसके चारों ओर के वातावरण को भी शुद्ध करता है।
4 सत्य का वैज्ञानिक और तात्त्विक दृष्टिकोण-
विज्ञान में भी सत्य को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वैज्ञानिक सत्य को वास्तविक तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर जांचा और सिद्ध किया जाता है। यह सत्य अनुभव और तर्क पर आधारित होता है जो बदलते हुए शोध और जांच के आधार पर लगातार विकसित होता रहता है।
दर्शन में सत्य को वास्तविकता के रूप में देखा जाता है जो अद्वैत वेदांत जैसे मतों में ब्रह्म असली सत्य के रूप में व्यक्त होता है। वेदांत में यह कहा गया है कि ब्रह्म ही परम सत्य है जो अपरिवर्तनीय और शाश्वत है।
सत्य का व्यावहारिक महत्व-
व्यक्तिगत जीवन-
सत्य का पालन करने से व्यक्ति को आत्मविश्वास, मानसिक शांति और संतोष मिलता है। सत्यवादी व्यक्ति समाज में सम्मान प्राप्त करता है और उसे आंतरिक संतुलन प्राप्त होता है।
सामाजिक जीवन-
सत्य पर आधारित समाज में न्याय, शांति और विश्वास का वातावरण होता है। जब लोग ईमानदारी और सत्य के मार्ग पर चलते हैं तो सामाजिक संबंध मजबूत होते हैं और संघर्ष कम होते हैं।
अस्तेय-
अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना या जो हमारा नहीं है उसे लेने की इच्छा न रखना। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांत है जो भारतीय दर्शन विशेष रूप से योग जैन धर्म और सनातन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अस्तेय संस्कृत के स्तेय शब्द से बना है जिसका अर्थ है चोरी और अ का अर्थ है नहीं। इस प्रकार अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी से बचना।
अस्तेय के प्रमुख पहलू-
1 भौतिक वस्तुओं की चोरी से बचना-
अस्तेय का पहला और स्पष्ट रूप चोरी न करने से है यानी किसी भी भौतिक वस्तु को बिना अनुमति या अनुचित तरीके से लेना चोरी है। यह वस्त्र, पैसा, आभूषण या अन्य कोई संपत्ति हो सकती है जो किसी और की है।
2 मानसिक और भावनात्मक स्तर पर अस्तेय-
अस्तेय केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है। यह मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी लागू होता है। उदाहरण के लिए किसी की मान्यता, सम्मान या श्रेय को अनुचित तरीके से लेना भी अस्तेय का उल्लंघन है। हमें दूसरों की भावनाओं, विचारों और श्रम का आदर करना चाहिए।
3 लालच और संग्रह की इच्छा से बचना-
अस्तेय केवल चोरी न करने तक सीमित नहीं है बल्कि यह अनावश्यक संग्रह और लालच से भी संबंधित है। इसका अर्थ है कि हमें केवल उतना ही लेना चाहिए जितनी हमें आवश्यकता है। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना दूसरों के अधिकारों का हनन करने के समान माना जाता है।
4 ईमानदारी और संतोष-
अस्तेय का पालन करना हमें ईमानदारी और संतोष की भावना सिखाता है। जब हम अस्तेय के मार्ग पर चलते हैं तो हम अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना सीखते हैं और संतोष में विश्वास करते हैं। इससे व्यक्ति को आंतरिक शांति और मानसिक संतुलन प्राप्त होता है।
अस्तेय का महत्व-
1 व्यक्तिगत विकास-
अस्तेय का पालन करने से व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है। जब व्यक्ति दूसरों की चीज़ों की इच्छा नहीं करता तो वह लालच, असंतोष और जलन से मुक्त रहता है। यह व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक शुद्धता प्रदान करता है।
2 समाज में सामंजस्य-
अस्तेय का पालन समाज में शांति और सामंजस्य को बढ़ावा देता है। जब लोग एक-दूसरे के अधिकारों और संपत्ति का आदर करते हैं तो समाज में चोरी, धोखाधड़ी और असमानता जैसी समस्याएँ कम हो जाती हैं। इससे समाज में विश्वास और सहयोग की भावना मजबूत होती है।
3 आध्यात्मिक उन्नति-
योग और जैन धर्म में अस्तेय को आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक माना गया है। जब व्यक्ति अस्तेय का पालन करता है तो वह अपनी इच्छाओं और संग्रह की प्रवृत्ति से मुक्त होता है जिससे उसकी आत्मा शुद्ध होती है और वह आध्यात्मिक रूप से उन्नति करता है।
ब्रह्मचर्य-
ब्रह्मचर्य एक महत्वपूर्ण नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांत है जिसका अर्थ है इन्द्रियों पर संयम और ब्रह्म अर्थात परमात्मा के प्रति समर्पण। यह शब्द दो भागों में विभाजित है ब्रह्म जिसका अर्थ है परमात्मा या ब्रह्मांडीय चेतना और चर्य जिसका अर्थ है आचरण या जीवन जीने का तरीका। इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है ब्रह्म या ईश्वर के प्रति समर्पित जीवन जीना या आत्म-संयमित जीवन।
ब्रह्मचर्य के प्रमुख पहलू
1 इन्द्रियों पर नियंत्रण-
ब्रह्मचर्य का मुख्य उद्देश्य इन्द्रियों पर संयम रखना है विशेषकर कामवासना पर। इसका मतलब है कि व्यक्ति अपने विचारों वाणी और कर्मों को शुद्ध और संयमित रखता है ताकि वह अपनी ऊर्जा को आध्यात्मिक और नैतिक विकास के लिए उपयोग कर सके।
2 यौन संयम-
ब्रह्मचर्य का एक प्रमुख पहलू यौन संयम से संबंधित है। भारतीय परंपरा में ब्रह्मचर्य विशेष रूप से विद्यार्थियों और आध्यात्मिक साधकों के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। यह उन्हें जीवन में ध्यान, अध्ययन और साधना पर केंद्रित रहने में मदद करता है। विवाह के पूर्व और कुछ मामलों में विवाह के बाद भी ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्राप्त होती है।
3 मानसिक और शारीरिक ऊर्जा का संरक्षण-
ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति अपनी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा को अनावश्यक रूप से व्यर्थ नहीं करता। यह संयम उसे अपनी ऊर्जा को सकारात्मक कार्यों में लगाने का अवसर देता है जैसे अध्ययन, ध्यान, योग और समाज सेवा।
4 आध्यात्मिक उन्नति-
ब्रह्मचर्य का पालन आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों के लिए आवश्यक माना गया है। योग और ध्यान की साधना में ब्रह्मचर्य का पालन आत्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा साधक अपनी चेतना को उच्च स्तर पर ले जा सकता है और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।
5 संतुलित जीवन-
ब्रह्मचर्य केवल शारीरिक संयम तक सीमित नहीं है बल्कि यह समग्र रूप से जीवन में संतुलन बनाए रखने का सिद्धांत है। इसमें खाने बोलने काम करने और जीवन के सभी पहलुओं में संतुलन बनाए रखना शामिल है। जब व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन स्थापित करता है, तो वह आत्मिक और मानसिक शांति प्राप्त करता है।
ब्रह्मचर्य का महत्व-
1 शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य-
ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है। अनावश्यक कामुक इच्छाओं और गतिविधियों से बचने पर व्यक्ति की ऊर्जा सुरक्षित रहती है जो शारीरिक शक्ति और मानसिक शांति को बढ़ावा देती है।
2 आध्यात्मिक जागृति-
ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति की आत्मिक चेतना जागृत होती है। यह उसे ध्यान साधना और ईश्वर के प्रति समर्पण में मदद करता है। इससे आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है।
3 सामाजिक योगदान-
ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला व्यक्ति समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का बेहतर ढंग से निर्वहन कर सकता है। उसकी ऊर्जा और एकाग्रता समाज सेवा, नैतिकता, और समाज के कल्याण के लिए उपयोग हो सकती है।
4 ध्यान और योग में सफलता-
योग और ध्यान की साधना में ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह साधक को मानसिक एकाग्रता और स्थिरता प्राप्त करने में मदद करता है जो उसकी साधना को गहराई और शक्ति प्रदान करता है।
अपरिग्रह-
अपरिग्रह एक नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांत है जिसका अर्थ है संपत्ति भौतिक वस्तुओं या आवश्यकताओं का संग्रह न करना और अत्यधिक लालच और संग्रह से बचना। यह शब्द दो भागों से मिलकर बना है अ का अर्थ है नहीं और परिग्रह का अर्थ है संग्रह या स्वामित्व। इस प्रकार अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ है संग्रह न करना या अत्यधिक आसक्ति से मुक्त रहना।
अपरिग्रह का मूल उद्देश्य व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं और संपत्ति के प्रति अनावश्यक आसक्ति और लालच से मुक्त करना है ताकि वह मानसिक और आत्मिक रूप से स्वतंत्र और संतुलित रह सके।
अपरिग्रह के प्रमुख पहलू-
1भौतिक वस्तुओं का संग्रह न करना-
अपरिग्रह का सबसे सीधा अर्थ है कि व्यक्ति को केवल वही वस्तुएँ रखनी चाहिए जो उसकी आवश्यकताओं के लिए जरूरी हों। अनावश्यक संपत्ति वस्त्र धन या अन्य सामग्री का संग्रह करना एक प्रकार का लालच माना जाता है जो व्यक्ति के मन को विकृत करता है और उसे आत्मिक विकास से दूर करता है।
2 आसक्ति और मोह से मुक्त रहना-
अपरिग्रह का पालन केवल बाहरी वस्तुओं तक सीमित नहीं है बल्कि यह आंतरिक रूप से भी आसक्ति और मोह से बचने की शिक्षा देता है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को वस्त्र धन या संपत्ति के प्रति भावनात्मक रूप से जुड़ाव नहीं रखना चाहिए। आसक्ति से मुक्त होकर व्यक्ति अपनी आंतरिक शांति और संतोष को प्राप्त करता है।
3 सादगी और संतोष का अभ्यास-
अपरिग्रह का पालन व्यक्ति को सादगी और संतोष की ओर प्रेरित करता है। जब व्यक्ति कम संसाधनों में संतुष्ट रहना सीख जाता है तो वह बाहरी भौतिक चीज़ों पर निर्भरता कम कर देता है और आंतरिक संतोष प्राप्त करता है। इससे मन का भार हल्का होता है और मानसिक शांति प्राप्त होती है।
4 सामाजिक और पर्यावरणीय पहलू-
अपरिग्रह का पालन केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए ही नहीं बल्कि समाज और पर्यावरण के लिए भी लाभदायक है। जब व्यक्ति आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ इकट्ठा नहीं करता तो वह प्राकृतिक संसाधनों का कम उपभोग करता है। यह सामाजिक न्याय और संसाधनों के समान वितरण में मदद करता है और पर्यावरण को भी संरक्षित रखने में सहायक होता है।
5 स्वतंत्रता और आत्म-निर्भरता-
अपरिग्रह व्यक्ति को मानसिक और आत्मिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है। जब व्यक्ति भौतिक वस्तुओं और सुख-सुविधाओं के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह आत्म-निर्भरता और स्वतंत्रता का अनुभव करता है। इससे व्यक्ति को ध्यान योग और साधना में सफलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
अपरिग्रह का महत्व-
1 आध्यात्मिक उन्नति-
अपरिग्रह व्यक्ति को भौतिकता के बंधनों से मुक्त करके आत्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। जब व्यक्ति भौतिक वस्तुओं और धन की आसक्ति से दूर होता है तो उसकी ऊर्जा आत्मा की ओर केंद्रित होती है जो उसे आध्यात्मिक मार्ग पर उन्नति प्रदान करती है।
2 मानसिक शांति और संतुलन-
अपरिग्रह का पालन करने से व्यक्ति की मानसिक अशांति और चिंता कम हो जाती है। जब व्यक्ति संग्रह की चिंता से मुक्त होता है तो वह मानसिक शांति और संतुलन का अनुभव करता है। इससे उसके जीवन में चिंता और तनाव कम होता है।
3 समाज और पर्यावरण का कल्याण-
अपरिग्रह का पालन करने वाला व्यक्ति संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करता है जिससे समाज के अन्य लोगों को भी लाभ मिलता है। इससे समाज में समानता और सहयोग की भावना बढ़ती है और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होता है।
4 व्यक्तिगत विकास-
अपरिग्रह व्यक्ति को आत्म-निर्भरता सादगी और आत्म-संयम सिखाता है। यह उसे अनावश्यक भौतिक सुखों से बचाकर आत्मिक और मानसिक विकास की दिशा में अग्रसर करता है।
1 कर्तव्य और नैतिकता-
धर्म का मुख्य अर्थ कर्तव्य और नैतिकता से संबंधित है। व्यक्ति का जो नैतिक और सामाजिक कर्तव्य है वह उसका धर्म है। यह न केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में बल्कि समाज परिवार और प्रकृति के प्रति भी लागू होता है। उदाहरण के लिए माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति कर्तव्य शिक्षक का अपने छात्रों के प्रति कर्तव्य और शासक का अपने राज्य के प्रति कर्तव्य ये सभी धर्म के अंतर्गत आते हैं।
2 आध्यात्मिकता और आस्था-
धर्म को आध्यात्मिकता और आस्था से भी जोड़ा जाता है। यह विश्वास और आस्था का मार्ग है जो व्यक्ति को ईश्वर आत्मा और सृष्टि की गूढ़ता को समझने और अनुभव करने में सहायता करता है। धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का पालन करने से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है और उसे संसार के चक्र से मुक्ति मिल सकती है।
3 नियम और विधान-
धर्म को अक्सर समाज के नियमों और विधानों के रूप में भी देखा जाता है। यह समाज की स्थिरता और संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है। ये नियम समाज के व्यवहार और आचरण के लिए एक मार्गदर्शन होते हैं जो समाज के सदस्यों के बीच शांति और सामंजस्य को बनाए रखने में मदद करते हैं।
4 सर्वभौमिक नैतिकता-
धर्म का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सर्वभौमिक नैतिकता का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करता है जैसे अहिंसा सत्य न्याय और परोपकार। इन मूल्यों के आधार पर धर्म यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति और समाज एक सजीव और सत्कर्मों से परिपूर्ण जीवन जी सकें।
धर्म का व्यावहारिक स्वरूप-
1 व्यक्तिगत धर्म -
व्यक्ति का अपना धर्म उसकी व्यक्तिगत योग्यता स्वभाव और जिम्मेदारियों के अनुसार निर्धारित होता है। इसे स्वधर्म कहा जाता है जो व्यक्ति को उसकी आत्मा और प्रकृति के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।
2 सामाजिक धर्म-
समाज के प्रति व्यक्ति के कर्तव्यों को सामाजिक धर्म कहा जाता है। इसमें अन्य लोगों के प्रति संवेदनशीलता समाज की भलाई के लिए कार्य करना और दूसरों की सहायता करना शामिल है।
3 विश्व धर्म-
धर्म के इस स्वरूप में सभी जीवों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखना पर्यावरण और प्रकृति का सम्मान करना और पूरे विश्व के कल्याण की कामना करना शामिल है। यह धर्म सभी मानवता को एक साथ जोड़ने का कार्य करता है।
अतः सनातन धर्म न केवल एक धार्मिक आस्था का समूह है, बल्कि यह नैतिकता और कर्तव्यों का पालन करने का एक व्यापक मार्गदर्शन प्रदान करता है। नैतिक दायित्वों का पालन करते हुए, व्यक्ति आत्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है। यह धर्म व्यक्ति को यह सिखाता है कि उसे अपने कर्मों के प्रति जागरूक रहना चाहिए और समाज, प्रकृति तथा ईश्वर के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
4 टिप्पणियां:
बहुत प्रेरणास्पद आलेख।
बहुत ही सारगर्भित लेख
बधाई हो
धन्यवाद सर
धन्यवाद सर
एक टिप्पणी भेजें