भारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य के प्रारब्ध कर्म व कर्म फल
भारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य के प्रारब्ध कर्म व कर्म फल प्रारब्ध कर्म उस कर्म को कहा जाता है जो हमारे पिछले जन्मों के कर्मों का फल है और जिसका अनुभव हमें इस जन्म में करना होता है। यह वह कर्म है जो पहले से ही तय हो चुका होता है और इसका फल हमें वर्तमान जीवन में भुगतना पड़ता है। इसे हमारी वर्तमान जीवन की परिस्थितियों जैसे कि जन्म, परिवार, शारीरिक स्थिति आदि के रूप में देखा जा सकता है।
प्रारब्ध कर्म का सिद्धांत यह मानता है कि जीवन में जो भी घटनाएँ घटती हैं वे पिछले जन्मों के कर्मों का परिणाम होती हैं। हालांकि इंसान के पास वर्तमान में कर्म करने की स्वतंत्रता होती है जिससे वह अपने भविष्य के कर्मों को प्रभावित कर सकता है।
संचित में से जो कर्म फल देने के लिये सम्मुख होते हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं। प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या विपरीत परिस्थिति के रूप में सामने आता है लेकिन उन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है- स्वेच्छा पूर्वक अनिच्छा पूर्वक व पारेच्छा पूर्वक। उदाहरणार्थ-
किसी व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें मुनाफा हो गया। ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें घाटा लग गया। इन दोनों में मुनाफा होना और घाटा लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु माल खरीदने में उनकी प्रवृत्ति स्वेच्छा पूर्वक हुई है।
किसी धनी व्यक्ति ने किसी बच्चे को गोद ले लिया अर्थात् उसको पुत्र-रूप में स्वीकार कर लिया जिससे उसका सारा धन उस बच्चे को मिल गया। ऐसे ही चोरों ने किसी का सारा धन चुरा लिया। इन दोनों में बच्चे को धन मिलना और चोरी में धन का चला जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं परन्तु गोद में जाना और चोरी होना यह प्रवृत्ति परेच्छापूर्वक हुई है।
प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं- प्राप्त फल और अप्राप्त फल। अभी प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही है वह प्राप्त फल है और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली है वह अप्राप्त फल है।
क्रियमाण कर्मों का जो फल-अंश संचित में जमा रहता है वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप में मनुष्य के सामने आता है। अतः जब तक संचित कर्म रहते हैं तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप में परिणत होता ही रहता है। यह परिस्थिति मनुष्यको सुखी- दुःखी होने के लिये बाध्य नहीं करती। सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तन शील परिस्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही मुख्य कारण है। परिस्थिति के साथ सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़ने में यह मनुष्य सर्वथा स्वाधीन है पराधीन नहीं है। जो परिवर्तन शील परिस्थिति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता है। परन्तु जो परिस्थिति के साथ सम्बन्ध नहीं मानता वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती है जो कि उसका स्वरूप है।
कर्मों में मनुष्य के प्रारब्ध की प्रधानता है या पुरुषार्थ की अथवा प्रारब्ध बलवान् है या पुरुषार्थ इस विषयमें बहुत-सी शंकाएं हुआ करती हैं। उनके समाधान के लिये पहले यह समझ लेना जरूरी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है?
मनुष्य में चार प्रकार की चाहत हुआ करती है - एक धन की, दूसरी धर्म की, तीसरी भोग की और चौथी मुक्ति की। प्रचलित भाषा में इन्हीं चारों को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के नाम से जाना जाता है-
अर्थ -
धन को अर्थ कहते हैं। वह धन दो प्रकार का होता है- स्थावर और जंगम। सोना, चाँदी, रुपये, जमीन, जायदाद, मकान आदि स्थावर हैं और गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, भेड़, बकरी आदि जंगम हैं।
धर्म -
सकाम अथवा निष्काम भाव से जो यज्ञ, तप, दान, व्रत, तीर्थ आदि किये जाते हैं, उसको 'धर्म' कहते हैं।
काम-
सांसारिक सुख-भोग को काम कहते हैं। वह सुख भोग आठ प्रकार का होता है- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान, बड़ाई और आराम ।
शब्द -
शब्द दो तरह का होता है- वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। व्याकरण, कोश, साहित्य, उपन्यास, गल्प, कहानी आदि वर्णात्मक शब्द हैं। खाल, तार और फूँक के तीन बाजे और ताल का आधा बाजा- ये साढ़े तीन प्रकार के बाजे ध्वन्यात्मक शब्द को प्रकट करने वाले हैं। इन वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों को सुनने से जो सुख मिलता है वह शब्द का सुख है।
स्पर्श -
स्त्री, पुत्र, मित्र आदि के साथ मिलना तथा ठंडा, गरम, कोमल आदि अर्थात् उनकी त्वचा के साथ संयोग होना जो सुख होता है वह स्पर्श का सुख है।
रूप -
नेत्रों से खेल, तमाशा, सिनेमा, बाजीगरी, वन, पहाड़, सरोवर, मकान आदि की सुन्दरता को देखकर जो सुख होता है वह रूप का सुख है।
रस-
मधुर, अम्ल, लवण,कड़वा, तीखा और कसैला इन छः रसों को चखने से जो सुख होता है वह रस का सुख है।
गन्ध -
नाक से इत्र, तेल, फुलेल, पुष्प आदि सुगन्ध वाले और लहसुन, प्याज आदि दुर्गन्ध वाले पदार्थों को सूँघने से जो सुख होता है वह गन्ध का सुख है।
मान -
शरीर का आदर-सत्कार होने से जो सुख होता है वह मान का सुख है।
बड़ाई -
नाम की प्रशंसा, वाह-वाही होने से जो सुख होता है वह बड़ाई का सुख है।
आराम -
शरीर से परिश्रम न करने से अर्थात् निकम्मे पड़े रहने से जो सुख होता है वह आराम का सुख है।
मोक्ष -
आत्म साक्षात्कार, तत्त्व ज्ञान, कल्याण, मोक्ष, मुक्ति, भगवत दर्शन, भगवत प्रेम आदि का नाम मोक्ष है।
इन चारों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में देखा जाये तो अर्थ और धर्म-दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की वृद्धि करने वाले हैं अर्थात् अर्थ से धर्म की और धर्म से अर्थ की वृद्धि होती है। परन्तु धर्म का पालन कामना पूर्ति के लिये किया जाय तो वह धर्म भी कामना पूर्ति करके नष्ट हो जाता है और अर्थ को कामना पूर्ति में लगाया जाय तो वह अर्थ भी कामना पूर्ति करके नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कामना धर्म और अर्थ-दोनों को खा जाती है। इसीलिए गीता में भगवान ने कामना को महाशन अर्थात बहुत खानेवाला बताते हुए उसके त्यागकी बात विशेषता से कही है। यदि धर्म का अनुष्ठान कामना का त्याग करके किया जाय तो वह अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है। ऐसे ही धन को कामना का त्याग करके दूसरों के उपकार में, हित में, सुख में खर्च किया जाय तो वह भी अन्तःकरण शुद्ध करके मुक्त कर देता है।
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष इन चारों में अर्थ और काम की प्राप्ति में प्रारब्ध की मुख्यता पुरुषार्थ की गौणता है तथा धर्म और मोक्ष में पुरुषार्थ को मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षेत्र अलग-अलग है और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रा में प्रधान हैं। इस लिये कहा है कि अपनी स्त्री, पुत्र, परिवार, भोजन और धन में तो सन्तोष करना चाहिये और स्वाध्याय, पूजा-पाठ, नाम-जप, कीर्तन और दान करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि प्रारब्ध के फल- धन और भोग में तो सन्तोष करना करने चाहिये क्योंकि वे प्रारब्ध के अनुसार जितने मिलने वाले हैं उतने ही मिलेंगे उससे अधिक नहीं। परन्तु धर्म का अनुष्ठान और अपना कल्याण करने में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये क्योंकि यह नया पुरुषार्थ है और इसी पुरुषार्थ के लिये मनुष्य-शरीर मिला है।
कर्म के दो भेद हैं शुभ और अशुभ शुभ कर्म का फल अनुकूल परिस्थिति का प्राप्त होना है और अशुभ कर्म का फल प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होना है। कर्म बाहर से किये जाते हैं इसलिए उन कर्मों का फल भी बाहर की परिस्थिति के रूपमें ही प्राप्त होता है। परन्तु उन परिस्थितियों से जो सुख-दुःख होते हैं वे भीतर होते हैं। इसलिए उन परिस्थितियों में सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभ-कर्मों का अर्थात् प्रारब्ध का फल नहीं है प्रत्युत अपनी मूर्खता का फल है। अगर वह मूर्खता चली जाय भगवान पर अथवा प्रारब्ध पर विश्वास हो जाय तो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी चित्त में प्रसन्नता होगी हर्ष होगा। कारण कि प्रतिकूल परिस्थिति में पाप कटते हैं। आगे पाप न करने में सावधानी आती है और पापों के नष्ट होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
साधक को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिये दुरुपयोग नहीं। अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्री को दूसरों के हित के लिये सेवा बुद्धि से खर्च करना अनुकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उसका सुख-बुद्धि से भोग करना दुरुपयोग है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छा का त्याग करना और मेरे पूर्वकृत पापोंका नाश करने के लिए भविष्य में पाप न करने की सावधानी रखने के लिए और मेरी उन्नति करने के लिये ही प्रभु-कृपा से ऐसी परिस्थिति आयी है ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है।
मनुष्य शरीर सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं है। सुख भोगने के स्थान स्वर्गादिक हैं और दुःख भोगने के स्थान नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ हैं। इसलिए वे भोगयोनियाँ हैं और मनुष्य कर्मयोनि है। परन्तु यह कर्मयोनि उनके लिए है जो मनुष्य शरीर में सावधान नहीं होते केवल जन्म-मरण के सामान्य प्रवाह में ही पड़े हुए हैं। वास्तव में मनुष्य शरीर सुख-दुःख से ऊँचा उठने के लिये अर्थात् मुक्ति की प्राप्तिके लिए ही मिला है। इसलिए इसको कर्मयोनि न कहकर साधनयोनि ही कहना चाहिए ।
प्रारब्ध-कर्मों के फलस्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आती है उन दोनों में अनुकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में तो मनुष्य स्वतन्त्र है पर प्रतिकूल परिस्थिति का स्वरूप से त्याग करने में मनुष्य परतन्त्र है अर्थात् उसका स्वरूप से त्याग नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि अनुकूल परिस्थिति दूसरों का हित करने उन्हें सुख देने के फलस्वरूप बनी है और प्रतिकूल परिस्थिति दूसरों को दुःख देने के फलस्वरूप बनी है।
इस तरह अशुभ कर्मों का फल जो प्रतिकूल परिस्थिति है। वह फौजदारी है इसलिए उसका स्वरूप से त्याग नहीं कर सकते और शुभ कर्मों का फल जो अनुकूल परिस्थिति है वह दीवानी है इसलिए उसका स्वरूप से त्याग किया जा सकता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का विभाग अलग- अलग है। इसलिए शुभ कर्मों और अशुभ कर्मों का अलग-अलग संग्रह होता है। स्वाभाविकरूप से ये दोनों एक-दूसरे से कटते नहीं अर्थात् पापों से पुण्य नहीं कटते औ पुण्यों से पाप नहीं कटते। हाँ अगर मनुष्य पाप काटनेके उद्देश्य से शुभ कर्म करता है तो उसके पाप कट सकते हैं।
संसार में एक आदमी पुण्यात्मा है सदाचारी है और दुःख पा रहा है तथा एक आदमी पापात्मा है दुराचारी है और सुख भोग रहा है इस बात को लेकर अच्छे-अच्छे पुरुषों के भीतर भी यह शंका हो जाया करती है कि इसमें ईश्वर का न्याय कहाँ है? इसका समाधान यह है कि अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रही है यह पूर्व के किसी जन्म में किये हुए पाप का फल है अभी किये हुए पुण्य का नहीं। ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है यह भी पूर्वके किसी जन्म में किये हुए पुण्यका फल है अभी किये हुए पापका नहीं। इसमें एक तात्त्विक बात और है। कर्मों के फलरूप में जो अनुकूल परिस्थिति आती है उससे सुख ही होता है और प्रतिकूल परिस्थिति आती है उससे दुःख ही होता है ऐसी बात नहीं है। जैसे-अनुकूल परिस्थिति आने पर मन में अभिमान होता है छोटों से घृणा होती है अपने से अधिक सम्पत्ति वालों को देखकर उनसे ईर्ष्या होती है असहिष्णुता होती है अन्तःकरण में जलन होती है और मन में ऐसे दुर्भाव आते हैं कि उनकी सम्पत्ति कैसे नष्ट हो तथा वक्त पर उनको नीचा दिखाने की चेष्टा भी होती है। इस तरह सुख-सामग्री और धन-सम्पत्ति पास में रहने पर भी वह सुखी नहीं हो सकता। परन्तु बाहरी सामग्री को देखकर अन्य लोगों को यह भ्रम होता है कि वह बड़ा सुखी है। ऐसे ही किसी विरक्त और त्यागी मनुष्य को देखकर भोग-सामग्री वाले मनुष्य को उस पर दया आती है कि बेचारे के पास धन-सम्पत्ति आदि सामग्री नहीं है बेचारा बड़ा दुःखी है। परन्तु वास्तव में विरक्त के मनमें बड़ी शान्ति और बड़ी प्रसन्नता रहती है। वह शान्ति और प्रसन्नता धन के कारण किसी धनी में नहीं रह सकती। इसलिए धन का होना मात्र सुख नहीं है और धन का अभाव मात्र दुःख नहीं है। सुख नाम हृदयकी शान्ति और प्रसन्नता का है और दुःख नाम हृदय की जलन और सन्ताप का है।
पुण्य और पाप का फल भोगने में एक नियम नहीं है। पुण्य तो निष्कामभाव से भगवान के अर्पण करने से समाप्त हो सकता है परन्तु पाप भगवान के अर्पण करने से समाप्त नहीं होता। पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है क्योंकि भगवान की आज्ञा के विरुद्ध किये हुए कर्म भगवान के अर्पण कैसे हो सकते हैं और अर्पण करने वाला भी भगवान के विरुद्ध कर्मों को अर्पण कैसे कर सकता है।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
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