आत्ममाया आत्मज्ञान की ओर एक आध्यात्मिक यात्रा
श्रीकृष्ण भगवान के अनुसार आत्ममाया आत्मा का साक्षात् कराने वाली संतत गोपनीय ब्रह्मविद्या का नाम है। यह आत्मा में पूर्ण प्रवेश दिलाने में सक्षम है। आत्मा की ओर ले चलने वाली आत्ममाया का ही दूसरा नाम योगमाया है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि मैं अपनी योगमाया से छिपा हुआ होने से सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। अतः आसुरी सम्पत्ति वाले अज्ञानी मुझ अविनाशी को न जानकर तुच्छ तथा साधारण मनुष्य मानते हैं। जब तक योग पराकाष्ठा पर नहीं पहुँच जाता तब तक भगवान पूर्णरूपेण विदित नहीं होते। पहले माया का पर्दा था अब योग का भी एक आवरण है जिसने उस शाश्वत स्वरूप को ढाँक रखा है। अतः इस गोपनीय आत्ममयी प्रक्रिया-विशेष के द्वारा प्रकृति का पूर्ण नियन्त्रण काल आ जाने पर उन चिरन्तन के दर्शन का विधान है। पूर्णता एवं पराकाष्ठा की स्थिति के लिए ही यह विधान है।
सम्बन्ध क्या है-
सम्बन्ध- आत्मिक प्रक्रिया की पूर्तिकाल में महापुरुष पूर्णरूपेण प्रकट होते हुए भक्त की आत्मा में प्रवाहित होकर शाश्वत स्वरूप प्रदान कर देते हैं। इस प्रकार अवतार के सृजन का माध्यम महापुरुष हैं किन्तु कौन से कारण-विशेष हैं जिनसे वह प्रभु अवतरित होता है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन जब-जब धर्म परमात्मा को लेकर ग्लानि होती है हृदय भयंकर ग्लानि से अभिभूत हो जाता है अधर्म अर्थात् काम, क्रोध, तृष्णा इत्यादि की साधक के हृदय में वृद्धि होने लगती है साधक प्रयत्न करने पर भी उन विकारों का पार नहीं पाता परमात्म-धर्म के लिए ग्लानि का बहुमत हो जाता है प्राप्ति के लिए अन्तःकरण ग्लानि से पूर्ण एवं अधीर हो जाता है, तभी मैं अपने स्वरूप को रचने लगता है।
योगमाया क्या है-
योगमाया हिंदू धर्म के अनुसार ईश्वर की दिव्य शक्ति है जो संसार को चलाने और बनाए रखने के लिए कार्य करती है। यह शक्ति सृष्टि पालन और संहार के रूप में कार्य करती है। योगमाया को भगवान की रचनात्मक और मायावी शक्ति के रूप में भी जाना जाता है जो सृष्टि में प्रकट होती है और जीवों को माया (भ्रम) में बांधने का कार्य करती है।
योगमाया के माध्यम से ईश्वर संसार में अपने कार्यों का संचालन करते हैं और जीवों को उनकी वास्तविकता से भ्रमित कर देते हैं ताकि वे संसार में अपने कर्मों का अनुभव कर सकें। साथ ही जब कोई भक्त भगवान की शरण में आता है तो योगमाया के प्रभाव से उसे मुक्त कर देती है और उसे परमात्मा की सच्ची पहचान का अनुभव कराती है।
अध्यात्मिक दृष्टिकोण से योगमाया का उद्देश्य जीवात्माओं को संसारिक बंधनों से मुक्ति दिलाना और उन्हें ईश्वर के साथ जोड़ना है।
आत्ममाया का अर्थ-
आत्ममाया का सीधा अर्थ होता है आत्मा का भ्रम या स्वयं के बारे में गलत धारणा। यह वह स्थिति होती है जब व्यक्ति अपने सच्चे आत्म से अनभिज्ञ होता है और अपने भौतिक शरीर, मन और इंद्रियों को ही वास्तविकता मान लेता है। यह भ्रम मनुष्य को भौतिक संसार की जटिलताओं और अस्थायी सुख-दुख में उलझाए रखता है।
आत्ममाया की प्रकृति-
माया का प्रमुख कार्य व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप से दूर करना है। जब हम आत्ममाया में होते हैं तो हम खुद को एक भौतिक शरीर और मानसिक अवस्थाओं से जोड़कर देखते हैं। हम यह समझने में असमर्थ हो जाते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप शुद्ध चेतना, शांति और आनंद से युक्त है। आत्ममाया हमें संसार की अस्थायी वस्तुओं और अनुभवों में उलझा देती है जिससे हम खुद के सच्चे आत्म को भूल जाते हैं।
आत्ममाया और आत्मज्ञान-
आत्ममाया से मुक्ति पाने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है आत्मा का बोध- यह समझना कि हमारा सच्चा अस्तित्व अनंत, अमर और शुद्ध है। भारतीय उपनिषद और भगवद गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों में आत्ममाया को जीतने और आत्मज्ञान प्राप्त करने के मार्ग को विस्तार से बताया गया है। इन ग्रंथों के अनुसार जब व्यक्ति आत्ममाया को पहचानकर उससे ऊपर उठ जाता है तो उसे मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है।
आत्ममाया से मुक्ति के मार्ग-
ध्यान और योग-
ध्यान और योग के माध्यम से आत्मा की गहरी समझ विकसित की जा सकती है। ध्यान हमें अपने मन के विचारों और भावनाओं से ऊपर उठने में मदद करता है जिससे हम अपनी शुद्ध चेतना के संपर्क में आते हैं।
स्वाध्याय-
धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन आत्ममाया के स्वभाव को समझने और उससे ऊपर उठने में मदद करता है। भगवद गीता, उपनिषद और अन्य योग ग्रंथों में आत्मा और माया के संबंध को विस्तार से बताया गया है।
सेवा और समर्पण-
निःस्वार्थ सेवा और ईश्वर के प्रति समर्पण से आत्ममाया के बंधनों से मुक्ति पाई जा सकती है। जब व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को त्याग कर ईश्वर और समाज की सेवा करता है तो वह अपने सच्चे स्वरूप के करीब पहुंचता है।
वैराग्य-
संसार की अस्थायी वस्तुओं और सुख-दुख से विमुख होकर वैराग्य की भावना विकसित करना आत्ममाया से मुक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है।
आत्ममाया का समापन-
आत्ममाया से पार पाना मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। जब व्यक्ति आत्ममाया के भ्रम से बाहर आ जाता है तब वह अपने सच्चे आत्म का अनुभव करता है और उसे जीवन में शांति, संतोष और आनंद की अनुभूति होती है। यह प्रक्रिया धीमी और कठिन हो सकती है लेकिन यह आत्मज्ञान की ओर बढ़ने का एक अनिवार्य मार्ग है।
दुष्कृताम क्या है-
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इत्यादि मानव को बाह्य प्रवृत्ति प्रदान करते हैं। यह मानव के अन्तः करण में प्रसुप्तावस्था में रहते हैं और संग-दोष को पाकर जागृत हो जाया करते हैं। ये जब भी जागृत होते हैं दूषित को क्रियान्वित करते हैं। यही दुष्कृत के मूल उद्गम हैं। इन दुष्कृताम् का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना अर्थात् स्थायित्व देने के लिए भगवान युग-युग में प्रगट होते हैं।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा को इन विभूतियों से युक्त केवल तत्त्वदर्शियों ने देखा है। साधारण लोगों को आत्मा के ये गुण दिखाई नहीं पड़ते। आये दिन शोक, सन्ताप और मृत्यु का कारण माया ही दिखलाई पड़ती है।
निष्कर्ष-
आत्ममाया वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने सच्चे आत्म का बोध खो देता है और भौतिक जगत की आभासी वास्तविकताओं में उलझ जाता है। इससे मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना ही जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है। आत्ममाया के प्रभाव से व्यक्ति अपनी वास्तविक आत्मा को पहचानने के बजाय, अपने शरीर, मन, और संसारिक वस्तुओं को ही सत्य मान लेता है। यह माया उसे संसारिक बंधनों, इच्छाओं, और मोह में उलझाए रखती है, जिससे वह अपनी आत्मिक यात्रा में रुकावटें अनुभव करता है। अध्यात्मिक साधना के माध्यम से आत्ममाया से मुक्ति पाकर व्यक्ति अपनी सच्ची आत्मा का बोध कर सकता है जो कि परमात्मा के साथ एकता की स्थिति होती है।
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
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