3 नव॰ 2024

मोक्षानुभूति के मार्ग

 मोक्षानुभूति के मार्ग 

मनुष्य के लिए अपने चरम भाग्य की प्राप्ति का मार्ग क्या है? राधाकृष्णन ने सर्वमुक्ति को मानव का चरम भाग्य कहा है तथा यह भी कहा है कि जब तक सर्वमुक्ति नहीं होती तब तक एक प्रकार से कोई मुक्त नहीं हो पाता। इससे एक उलझन उत्पन्न होती है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अपने अन्तर में स्थित ईश्वरत्त्व को जाग्रत करने के बाद भी तब तक दायित्वमुक्त नहीं होता जब तक सर्वमुक्ति न हो जाए। तो क्या अब उसे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी है? और यदि उसे अभी भी कुछ करना है तो अपना योगदान देना है तो सर्वमुक्ति को अनिवार्य कहना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। राधाकृष्णन इस उलझन का समाधान बड़े सरल रूप में करते हैं। उनका कहना है कि यदि व्यक्ति पूर्णतया अकर्मण्य हो जाए तथा बिना कुछ किए मात्र प्रतिक्षा करता रहे तो इससे एक ओर तो अनिश्चयता बढ़ेगी तथा दूसरी ओर सर्वमुक्ति में भी विलम्ब होगा।

राधाकृष्णन का कहना है कि सर्वमुक्ति में विलम्ब मानव के लिए हितकर नहीं है। विश्व में ऐसी प्रवृत्तियां भी सजग हैं जिन्हें यदि निरंकुश छोड़ दिया जाए तो मानव कल्याण बड़ा कठिन हो जायेगा। उनका कहना है कि वर्तमान मानव के जीवन के ढंगों में मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है। वह हर सम्पदा के बीच भी थका तथा एकाकी हो गया है। वह अपने अस्तित्व में निहित एक विचित्र क्लेश-भाव से ग्रसित है। वह पूर्णतया अशान्त है। इससे छुटकारा पाने के लिए भी यह अनिवार्य हो जाता है कि वह मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करे ।

सभी धर्मों के द्रष्टाओं तथा पैगम्बरों को इस तथ्य की स्पष्ट अनुभूति रही है। शायद इसी कारण सभी ने अपने-अपने ढंग से आह्वान किया है कि मानव इस सांसारिकता इस प्रकार के मानसिक प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं के जगत से ऊपर उठे तथा उस सत्य को जानने की चेष्टा करे जो किसी अवधारणा से बंधा हुआ नहीं है जिसे पूर्णतया नहीं जानने पर भी अनुभूत किया जा सकता है जो मानव-आत्म की वास्तविकता है जो सर्वोच्च ईश्वरत्व का भाव है। राधाकृष्णन के अनुसार इसी अनुभूति को जाग्रत करना सर्वोच्च धर्म है। वे इसे ईश्वर की स्पष्ट अनुभूति का प्रयत्न कहते हैं और इसे ही वास्तविक धर्म मानते हैं। किन्तु अब यह प्रश्न उठ जाता है कि यह प्रयत्न कैसे किया जाय? इस प्रश्न की विवेचना राधाकृष्णन धार्मिक अनुभूति की विवेचना के अन्तर्गत करते हैं।

धार्मिक अनुभूति-

राधाकृष्णन का कहना है कि प्रारम्भ में ही एक विश्वास जगाना एक आस्था उत्पन्न करना आवश्यक है। इसे वे धार्मिक अनुभूति में आस्था कहते हैं। उनका अपना विश्वास है कि धार्मिक अनुभूति ही मानव को पूर्ण आध्यात्मिक जीवन को अपने में आत्मसात करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इसी कारण वे धार्मिक अनुभूति के स्वरूप तथा उसके विशिष्ट लक्षणों की विशद व्याख्या करते हैं। उनका कहना है कि यह अनुभव तो है किन्तु यह साधारण अनुभवों जैसा नहीं है। इसमें साधारण अनुभव के सारे लक्षण विद्यमान हैं फिर भी इसमें कुछ ऐसी विशिष्टता है जिसके फलस्वरूप यह उनसे भिन्न भी है। साधारण अनुभवों के समान इसमें भी किसी विषय को विषयनिष्ठ अवगति होती है और सभी अनुभवों के समान यहां भी एक तृप्ति मिलती है। जिससे एक प्रकार की सन्तुष्टि प्राप्त होती है। किन्तु यह धार्मिक अनुभव है अतः इसमें कुछ अपनी विशिष्टता भी है। इसकी विशिष्टता यही है कि यह उस विशेष स्थिति तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि उन विशेष स्थिति से ऊपर उठ कुछ आध्यात्मिक एवं शाश्वत सत्यों की ओर उन्मुख हो जाता है। यह साधारण अनुभवों से भिन्न इसी कारण है कि यह तो मानव-अस्तित्व में निहित सम्भावनाओं को भी देखने की चेष्टा करता है। यह मानव-अस्तित्व की सीमितता से ऊपर उठ कर उसे देखता है। यही ऊपर उठना तो आध्यात्मिकता है ।

राधाकृष्णन का कहना है कि इस प्रकार के अनुभव की सम्भावना में विश्वास इस मार्ग पर अग्रसर होने के लिए अनिवार्य है। इन दिनों कुछ ऐसा प्रचलन है कि इस प्रकार की बातों को लोग अनसुनी कर देते हैं तथा उस पर ध्यान नहीं देते। किन्तु राधाकृष्णन स्पष्ट कहते हैं कि हम इन अनुभवों में निहित सत्यों के विषय में चाहे जितने भी विवाद उत्पन्न कर लें इनकी वास्तविकता पर संशय नहीं किया जा सकता । वे स्वीकारते हैं कि इस प्रकार के उच्चतम अनुभूति तो दुर्लभ हैं किन्तु इसके मृदुतर रूपों के उदाहरण साधारण जीवन में भी उपलब्ध है। उदाहरणतः सौन्दर्यानुभूति इसका एक उदाहरण है इस प्रकार के अनुभवों की वास्तविकता का प्रमाण केवल दृष्टाओं का अनुभव ही नहीं है बल्कि इसके कुछ रूपों के साक्षी तो साधारण मनुष्य भी हैं। कोई नये ज्ञान की उपलब्धि किसी विशिष्ट कविता का रसपान अथवा किसी महान कार्य के समक्ष आत्मोत्सर्ग ये सभी उसी रहस्यात्मक अनुभूति के साक्ष्य हैं।

इस बात को गहन प्रेम के विश्लेषण के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। हम इस प्रकार के प्रेमानुभूति में अपने से या अपने वातावरण से ऊपर उठ जाते हैं और उसमें एक प्रकार से खो जाते हैं। जब भी मनुष्य कोई श्रेष्ठ कार्य करता है उसे कुछ इस प्रकार की अनुभूति होती है। राधाकृष्णन का कहना है कि किसी प्रकार की अभिव्यक्ति या किसी प्रकार की प्रतिबद्धता या किसी प्रकार का सत्कर्म आदि का स्रोत इसी प्रकार के आन्तरिक धर्म में है। सत्य शिव सुन्दर की आकांक्षा इसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। ईश्वर के प्रति आस्था भी इसी का रूप है। मां के वक्षस्थल से लगे शिशु अनपढ़ देहाती का सितारों का देखना अपने माइक्रोस्कोप पर स्थित वैज्ञानिक एकान्त की शान्ति या विश्व के सौन्दर्य पर कवि की विह्वलता- इन सभी में किसी न किसी अंश में यही शाश्वत रहस्यात्मक अनुभूति परिलक्षित है। यही कारण है कि इन अनुभवों में व्यक्ति जीवन के कष्ट तथा क्लेश से ऊपर उठ जाता है।

अतः इस विवरण के आधार पर राधाकृष्णन के द्वारा चित धार्मिक अनुभूति के लक्षणों का उल्लेख किया जा सकता है।

(1) यह अनुभूति है इसका अर्थ है कि यह कोई असाधारण या अतिप्राकृतिक बात नहीं है बल्कि इससे यह बोध होता है कि यह सर्वसाधारण के लिए सम्भव है। इसे अनुभूति कहने का यह भी तात्पर्य है कि इससे एक विषयनिष्ठ अवगति प्राप्त होती है।

(2) इसे पूर्णतया एकरूप एवं अखण्डित चेतना कहा गया है। यही इस अनुभूति की विशिष्टता है जिसके कारण यह अन्य साधारण अनुभवों से भिन्न प्रतीत होता है। साधारण अनुभवों में विषयी एवं विषय काईत सदा वर्तमान रहता है। किन्तु धार्मिक अनुभूति में इस प्रकार का द्वैत तथा भेद समाप्त हो जाता है। राधाकृष्णन का कहना है कि इस अनुभूति में विषयी तथा विषय पूर्णतया एकरूप हो जाते हैं।

(3) एक दृष्टि से इस अनुभूति को स्व-निर्धारित भी कहा जा सकता है क्योंकि यह मन की स्वतंत्र वृत्ति है। किसी बाह्य उपकरण के द्वारा यह निर्धारित नहीं होता । इसका अन्तर में उद्‌भव प्रायः स्वतः एवं अनायास होता है।

(4) इसके आधार पर इसे आन्तरिक एवं वैयक्तिक भी कहा जा सकता है। व्हाइटहेड के समान राधाकृष्णन भी धार्मिक अनुभूति में आन्तरिकता पर महत्त्व देते हैं। धार्मिक जीवन मूलतः आन्तरिकता का जीवन ही है।

(5) इस अनुभूति की विशिष्टता यह भी है कि इसमें एक प्रकार से सांसारिकता के प्रति एक प्रकार की विरक्ति का बोध होता है। जिस प्रकार का लगाव या मोह हमें साधारण जीवन में वस्तुओं के प्रति होता है उससे हम इस अनुभूति में उदासीन प्रतीत होते हैं। यह क्षणिकता तथा सीमितता से तटस्थ होने की प्रवृत्ति का सूचक है।

(6) राधाकृष्णन कहते हैं कि धार्मिक अनुभूति आत्म का सत् के प्रति पूर्ण उन्मुखता है। पूर्ण शब्द के व्यवहार का एक विशेष तात्पर्य है। यह किसी रूप में आंशिक नहीं इसमें विषयी भी पूर्णरुपेण उन्मुख हो जाता है और विषय भी कोई विशेष तत्त्व नहीं बल्कि सत् ही है। इसे स्पष्ट करते हुए राधाकृष्णन ने कहा है कि यह सर्वपक्षी शब्द अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ है कि यह मात्र संज्ञानात्मक अथवा मात्र भावनात्मक अनुभूति नहीं है। इसमें मानव का हर पक्ष क्रियाशील हो जाता है यह एक साथ ज्ञानात्मक भावनात्मक तथा क्रियात्मक सभी है ।

(7) राधाकृष्णन का कहना है कि इस अनुभूति के फलस्वरूप अन्तर में एक प्रकार की शान्ति का अनुभव होता है। शान्ति की परिभाषा देते हुए राधाकृष्णन बड़े सुन्दर है उनका कहना है कि ऐसी अनुभूति की अवस्था जीवन को अशान्त बनाने वाले उपकरण निष्क्रिय हो जाते हैं और व्यक्ति एक प्रकार की सन्तुष्टि आनन्द तथा शान्ति का अनुभव करता है।

(8) आनन्द के साथ-साथ इस अनुभूति उन्मुक्तता का भी भास होता है। अशान्ति तथा क्लेश-भावना जीवन की परेशानी तथा चिन्ता के कारण उत्पन्न होती है और इसका मुख्य कारण है कि हम एक ओर तो अहं भाव से ग्रसित रहते हैं तथा दूसरी ओर सांसारिक उपलब्धियों के प्रति आसक्त हो जाते हैं। धार्मिक अनुभूति में हम इससे ऊपर उठ जाते हैं। और इस ऊपर उठने में हमें बोझ-मुक्त और उस अर्थ में उन्मुक्त होने की चेतना हो जाती है।

(9) राधाकृष्णन का कहना है कि इस अनुभव में यह चेतना भी रहती है कि यह चेतना पूर्णतया वास्तविक है तथा सत् की चेतना भी है। इस प्रकार की अनुभूति को विशिष्टता यह भी है कि यदि यह कुछ क्षणों के लिये भी उपलब्ध हो तब भी इसका प्रभाव व्यापक तथा जीवन पर्यन्त रहता है।

(10) इसी कारण राधाकृष्णन इस प्रकार के अनुभव के विवरण के प्रयत्न में स्व-स्थापित स्व-प्रमाणित स्व-प्रकाशित आदि शब्दों का उपयोग करते हैं। इस प्रकार का अनुभव अपनी प्रमाणिकता के लिये साक्ष्यों का मोहताज नहीं होता। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता भी नहीं। यह इस रूप में प्राप्त होता है कि इसे नकारना सम्भव हो प्रतीत नहीं होता । राधाकृष्णन इसे पूर्ण अवबोध पूर्ण अर्थपूर्णता पूर्णतया प्रमाणित कहते हैं।

(11) ऊपर दिये गये विवरणों के विरुद्ध यह आपत्ति उठायी जा सकती है कि ये सभी तो रिक्त शब्द मात्र हैं जिनसे कुछ सूचित नहीं हो पाता । राधाकृष्णन का कहना है कि हमारी भाषा की भी सीमा है उन्हें प्रतीत होता है कि हमारे भाषीय ढंग इस अनुभूति के पूर्ण चित्रण में समर्थ प्रतीत नहीं होते। उनके अनुसार तो इन शब्दों के माध्यम

गहन अंतर्ज्ञान पूरी तरह से मौन है। विज्ञान के माध्यम से हम 'बिना किसी संदेह के स्वीकार करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की महिमा वैज्ञानिक रूप से और वाणी और मन से परे है। आध्यात्मिक जीवन अकथनीय और रहस्यमय है।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हम ऐसे अनुभव के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं जो वस्तुतः इस रूप में प्राक्त हो भी नहीं सकता । हमारी भाषा इस अनुभव का यथार्थ चित्र खींच नहीं सकती । हमारी भाषा के सामान्य ढंग भाषीय अभिव्यक्ति की विधायें विषयी तथा विषय है द्वैत को स्वीकार कर ही अग्रसर होती हैं। अतः यह अनुभव जो पूर्णतया एकरूप एवं खण्डित है इस प्रकार के खण्डित भाषीय ढंगों में उतारा ही नहीं जा सकता । वस्तुतः इस अनुभव को भाषा में व्यक्त करने का हर प्रयत्न कुछ हद तक उस अनुभव को विकृत कर देता है अनिवर्चनीय अनुभूति के लिये भाषीय प्रतीक यथेष्ट नहीं । प्रतीक ऐतिहासिक एवं स्थानीय परम्पराओं के अनुरूप बनते हैं किन्तु उनकी अपनी सीमा है वे प्रतीक ही है, उस अनुभूति के यथार्थ चित्र नहीं ।

धर्म का सार-रूप-

तो अब यह स्पष्ट हो गया कि जो जीवन धार्मिक अनुभूति को चरमता तथा परम महत्त्व पर बल वे वही धार्मिक जीवन है। अतः धार्मिक अनुभूति से ही धर्म का वास्तविक स्वरूप निर्धारित होता है।

धर्मों के इतिहास में हर प्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं कहीं धर्म को भावना संवेगात्मक भाव तथा भावनात्मक अभिवृत्ति के साथ जोड़ा जाता है, तो कहीं इसे मूल प्रवृत्ति या धार्मिक प्रथाओं या पारम्परिक रीतिरिवाजों में उतारने को चेष्टा होती रही है। राधाकृष्णन का कहना है कि ऐसे सभी विचारों में कुछ सच्चाई तो है ही किन्तु जिस प्रकार वे अपनी बात पर बल देते हुए अन्य तथ्यों को नकार देते हैं, वह यथार्थ नहीं है। वे जिन 'तत्त्वों' का उल्लेख करते हैं वे सभी कुछ न कुछ अंश में धर्मों में विद्यमान हैं, किन्तु उनका यह कहना कि धर्म में मात्र उतना ही है स्पष्टतः गलत है। धर्म इन सभी तत्त्वों का समन्वयित रूप है। इसमें ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा क्रियात्मक सभी अंश है इनमें धार्मिक प्रथा रीतिरिवाज आदि के लिये भी स्थान है। राधाकृष्णन कहते हैं कि वस्तुतः सभी धार्मिक मतभेदों या विवादों के पोछे मूलतः यही बात रहती है कि हर पक्ष धर्म के किसी एक पहलू पर पूरा बल वे बेता है तथा अन्य पहलुओं की उपेक्षा करता है जिन अन्य पहलुओं पर दूसरे बल देते हैं। यदि हम सभी धर्मों के मूल में जाकर देखें, तो स्पष्ट हो जायगा कि सभी धर्मों में एक ऐसी मूल एकरूपता है जो इनकी विभिन्नताओं से ऊपर उठी हुयी है। विवाद या मतभेव तब उत्पन्न होता है जब कोई धार्मिक पक्ष धर्म के किसी एक लक्षण पर बल देता हुआ उसे ही धर्म का सार-रूप मान लेता है।

अतः राधाकृष्णन का कहना है कि इस प्रकार के धार्मिक विवाद धर्म के सार-रूप से सम्बन्धित विवाद नहीं हैं। बल्कि थे तो धर्म के सार-रूप को नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न होते हैं। हम सभी किसी विशेष धार्मिक समुदाय के अन्तर्गत ही जन्म लेते हैं, तथा उत्ती समुदाय की धार्मिक परम्परा के अनुरूप हमारा लालन पालन शिक्षण आवि होता है। इसी रूप में सोचे हुए प्रतीकों के द्वारा परम सत् को समझने की  चेष्टा करते हैं। हमारे सभी ढंग या प्रतीक इसी प्रकार की परम्परा से सर्जित हैं। फलतः हम भूल जाते हैं कि जिसे हम इन सीखे हुए माध्यमों के द्वारा समझने की चेष्टा कर रहे हैं वह वस्तुतः इन सभी से परे है। हमारे ढंग तो आकारिक प्रतीक हैं जिनकी हमें जीवन में आवश्यकता है किन्तु हमारे लिए प्रतीक तथा उससे जो सूचित हो रहा है इसके भेद का विस्मरण वांछनीय नहीं है। प्रतीक विभिन्न हो सकते हैं किन्तु उन सभी से सूचित होने वाला सत् एक है। प्रतीकों के भेद के कारण ही विभिन्न प्रकार के धर्मों का उद्भव हो जाता है किन्तु यह स्मरण रखना है कि उनका सार-रूप एक है क्योंकि वे सभी एक सत् को व्यक्त करने के प्रयत्न हैं। धर्मों का यह सार-रूप क्या है? वह मूल सार्वभौम भाव क्या है जो सभी धर्मों में निहित है। राधाकृष्णन कहते हैं कि वस्तुतः धर्म कोई सिद्धान्त या निर्देश नहीं है यह तो सत् की अंतर्दृष्टि हैं। वे कहते हैं इस अंतर्दृष्टि को समझने से एक सार्वभौम तथ्य स्पष्ट होता है कि मानव के हो अन्तर में कुछ है जो मानव के दृश्यरूप से उच्चतर है। वही कुछ सत्-रूप है जो मानव-आत्म में स्थित है तथा वही मानव के सीमित तथा असीम रूपों के मध्य सेतु-रूप है। इसी बात की समझ धर्म के सार-रूप की समझ है। अतः राधाकृष्णन कहते हैं कि धर्म की वास्तविकता धर्म का सार-रूप जीवन के उस ढंग में व्यक्त होता है जिस ढंग से मानव अपने सामान्य स्वभाव को इस प्रकार परिणत कर ले कि उसके जीवन में ईश्वरत्त्व व्यक्त हो सके आत्म में निहित उस सत्त-रूप कुछ की अभिव्यक्ति हो सके। धर्म का अर्थ है परम आध्यात्मिक मूल्यों तथा उन्हें प्राप्त करने के ढंगों में आस्था । इस आस्था में परात्म के प्रति उन्मुखता निहित है अतः यह विश्वास निहित है कि परात्मकता की अनुभूति सम्भव है। यह विश्वास निहित है कि परात्मकता की अनुभूति सम्भव है। यही कारण है कि श्रेष्ठ धर्मों के आधार वे ही सत्य बने हुए हैं जिन्हें पैगम्बरों द्रष्टाओं ने समझा तथा देखा था। अतः कहा जा सकता है कि धार्मिक अनुभूति की भावात्मक वास्तविकता में आस्था ही धर्म का वास्तविक स्वरुप व उसका सार रूप हैं।

लेखक- बद्री लाल गुर्जर

ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com

© 2025 – सभी अधिकार सुरक्षित। 


कोई टिप्पणी नहीं:

अंतरदर्शन

अन्तर्दर्शन और आत्मालोचना क्या है?

अंतर्दर्शन क्या है,आत्मालोचना क्या है,अंतर्दर्शन और आत्मालोचना में अंतर,आत्मचिंतन,आत्मविकास के तरीके,मानसिक स्वास्थ्य और अंतर्दर्शन,आत्मालोच...