धर्म एवं नैतिकता
किसी धार्मिक विवेचना के अन्तर्गत धर्म तथा नैतिकता की चर्चा एक शीर्षक के अन्तर्गत उपयुक्त प्रतीत नहीं होती क्योंकि दार्शनिक दृष्टि से इन दोनों भावों में अवधारणात्मक भेद हैं। नैतिकता इहलौकिक कोटि है वे सामान्य सामाजिक जीवन के साथ जुड़ी है। किन्तु धार्मिक मूल्यों में परात्मकता का बोध है। इन दोनों में विरोध नहीं है एक ही विचार में दोनों एक साथ पूर्णतया समन्वयित हो सकते हैं किन्तु दोनों की अवधारणा एक दूसरे से भिन्न है।
फिर भी गांधी-विचार में ये दोनों अवधारणायें एक साथ जुड़ी हुयी हैं गांधी का विचार है कि धर्म तथा नैतिकता एक दूसरे से असम्बद्ध हो रह ही नहीं सकते। यदि कोई धार्मिक निर्देश अनैतिक प्रतीत हो तो वैसे धर्म को गांधी धर्म ही नहीं कहेंगे यहां तक कि कुछ धार्मिक अनुशंसायें अबौद्धिक प्रतीत हों किन्तु नैतिकता के अनुरूप हों तो गांधी को उन्हें स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होगी। गांधी स्पष्ट कहते हैं कि यह सम्भव ही नहीं कि कोई क्रूर असत्यवादी तथा हिंसक प्रवृत्ति का हो और यह सोचता रहे कि ईश्वर का हस्त उसके सिर पर है। फिर भी हम अपने दार्शनिक विवेचन में गांधी के धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी विचारों की चर्चा पृथक-पृथक खण्डों में करने का प्रयास कर रहे हैं यह यहां भी स्पष्ट होता जायगा कि किस आधार पर गांधी दोनों भावों से अनिवार्य सम्बन्ध मानते हैं।(क) धर्म
(1) धर्म क्या है ?
हमने देखा है कि गांधी के अनुसार ईश्वर ही एक मात्र सत् है जो सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। गांधी के धर्म-सम्बन्धी विचार भी उनके इस मूल विश्वास के अनुरूप ही हैं। यदि सत्य ईश्वर है तो सत्य का निष्ठापूर्ण अनुशीलन धर्म है।
सामान्य प्रचलित ढंग से धर्म का अर्थ किसी परात्मरूप शक्ति के प्रति भक्तिपूर्ण आस्था है। गांधी इस प्रचलित धारणा के विरुद्ध नहीं वे मात्र इतना उसमें जोड़ देते हैं कि वह परात्म-रूप शक्ति सत्य है अतः उसी विवरण के अनुरूप कहा जा सकता है कि सत्य जो ईश्वर है के प्रति पूर्ण निष्ठा ही धर्म है।
अपने इस विशिष्ट विचार को स्पष्ट करने के लिये गांधी प्रथमतः यह बताते हैं कि धर्म से वे क्या समझते हैं।
गीता को महत्त्व देने के कारण लोग कभी-कभी गांधी को हिन्दू धर्म का ही प्रवर्त्तक कह देते हैं अतः गांधी स्पष्ट करते हैं कि धर्म से वे हिन्दू धर्म या किसी विशेष धर्म को सूचित नहीं करते। धर्म किसी विशेष धर्म से परे है ऊपर है। गांधी के अनुसार धर्म वह शक्ति है जो मनुष्य के स्वभाव को पूर्णतया परिवर्तित कर देता है जो मानव का सत्य के साथ जोड़कर आत्म-शुद्धि का साधन बन जाता है। यह मानव-स्वरूप का वह शाश्वत पक्ष है जो तब तक अशान्त रहता है जब तक वह अपनी-आत्मा की वास्तविकता न समझ ले तथा सत्य रूप ईश्वर की उपलब्धि के रूप में अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति न कर ले। हम महात्मा गांधी के ऊपर उद्धृत विवरण के आधार पर गांधी के धर्म-विचार की विशिष्टताओं को स्पष्ट करें। प्रथमतः तो कहा जा सकता है कि गांधी के अनुसार धर्म-मानव के शाश्वत स्वरूप की अभिव्यक्ति है। मानव की पाश्विक प्रवृत्तियों था उसका जैविक पक्ष उसका शाश्वत स्वरूप नहीं है। उसका शाश्वत स्वरूप उसका ईश्वरीय पक्ष है जिसे जैसा कि हमने देखा है गांधी मानव का अनिवार्य शुभत्व रूप कहते हैं। धर्म इसी पक्ष की अभिव्यक्ति है। पुनः धर्म आत्म-शुद्धता एवं आत्मोत्थान का साधन है। यह शुभत्व की अभिव्यक्ति है अतः इसमें यह शक्ति निहित है कि वह मानव-स्वभाव को परिवर्तित कर सके उसके विचार कर्म आदि को जैविक प्रवृत्तियों के स्थान पर शुभत्व-रूप के अनुरुप बना सके। अपनी शाश्वत वास्तविकता के अनुरूप होना ही आत्म-शुद्धता है। पुनः गांधी का कहना है कि धर्म में यह शक्ति भी निहित है कि वह मानव के अन्तर में एक प्रकार को अशान्ति उत्पन्न करे । यह अशान्ति दैनिक जीवन की सामान्य अशान्ति जैसी नहीं बल्कि यह एक प्रकार की आध्यात्मिक प्यास है- जो मानव को शुभ एवं उचित को आत्ममात करने के लिये प्रेरित करती है और तब तक तृप्त नहीं होती जब तक उसमें पूर्ण नैतिकता का भाव नहीं जागे । पुनः गांधी यह भी कहते हैं कि धर्म में परात्मकता की ओर अग्रसर होने की एक चेतन प्रेरणा भी है। धर्म इस अवगति पर आधृत है कि यह वस्तुतः ईश्वरत्व प्राप्ति के लक्ष्य से ही प्रेरित है। पुनः गांधी के अनुसार यह सब सत्य के प्रति निष्ठा तथा सत्य के अनुशीलन से ही सम्भव हो सकता है। इसके बिना धर्म के सभी अन्य स्वरूर निष्प्राण प्रतीत होंगे। इसीलिए सत्य के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ विचार-आचार की अभिव्यक्ति ही धर्म है।
(2) धर्म-मार्ग
गांधी के अनुसार धर्म मात्र एक सैद्धान्तिक अवधारणा नहीं है जो हमारी बौद्धिक जिज्ञासा को शान्त करता है यह तो जीवन की एक अनिवार्य व्यवहारिकता है जीने का सबल एवं आवश्यक ढंग है। गांधी का तो कहना है कि यदि कोई धर्म व्यवहारिक आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा करता है तो वह धर्म ही नहीं है। उन के अनुसार वास्तविक धर्म को अनिवार्यतः व्यवहारिक होना ही है। यही कारण है कि उनकी अनुशंसा है कि धर्म को तो धर्म के हर पक्ष में व्याप्त होना चाहिए। राजनैतिक जीवन में भी व्याप्त होना चाहिए । धर्म इस विश्वास पर आधृत होता है कि जगत के संचालन में अराजकता नहीं है। बल्कि एक व्यवस्थित संगठित नैतिक व्यवस्था है। अतः इस विश्वास को जीवन के हर पक्ष पर आच्छादित होना चाहिए हर व्यवहारिक पक्ष को इससे नियंत्रित होना चाहिए। तो इस प्रकार के धार्मिक-आदर्श प्राप्ति का व्यवहारिक मार्ग क्या है?
हमने देखा कि गांधी के अनुसार धर्म सत्य के प्रति पूर्ण समर्पण तथा सत्य का निष्ठापूर्ण अनुशीलन है। तो इसका अर्थ है कि धर्म सत्व का आग्रह ही है- सत्याग्रह है। यदि कोई निष्ठापूर्वक सत्य एवं अहिंसा का मार्ग अपनाता है तो वह धर्म मार्ग पर है। किन्तु सत्याग्रह के उपयुक्त अनुशीलन के लिए आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-शुद्धता अनिवार्य है। इसी कारण धर्म के अन्तर्गत प्रार्थना ईश्वर के प्रति पूर्ण भक्ति एवं समर्पण आत्म-बलिदान की सहजता प्रेम सहिष्णुता आदि धार्मिक वृत्तियों के रूप में अनुशंसित है।
गांधी के लिये प्रार्थना का बड़ा ही प्रबल महत्त्व एवं मूल्य है। उनके जीवन में ऐसे अनेकों आपत्ति के क्षण आये जिनमें गांधी एकान्त में सिमट कर प्रार्थना एवं ध्यान में रत हो जाते। इससे हर बार उन्हें अपार आत्मिक शक्ति तथा आस्था प्राप्त होती थी । गांधी के अनुसार प्रार्थना का अर्थ ईश्वर से कुछ मांगना नहीं है यह तो आत्मा का परमात्मा के प्रति आह्वान है। यह आत्मा की विकलता की अभिव्यक्ति है और इसके द्वारा आन्तरिक जीवन संगठित होता है उसे शान्ति मिलती है। इसी कारण गांधी कहते हैं कि प्रार्थना तो धर्म का प्राण है यह मानव के जीवन का सार है। मानव-जीवन के लिये धर्म अनिवार्य है। तथा धर्म के लिये प्रार्थना ।
इस स्थल पर गांधी एक प्रश्न की सम्भावना का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि कोई पूछ सकता है कि हम प्रार्थना क्यों करें । यदि ईश्वर है तो वह तो सर्वज्ञानी है उसे क्या हो रहा है इसकी पूरी जानकारी है। वह सर्वशक्तिमान है उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं सरकता। तो उसे हमारी आवश्यकताओं का भी ज्ञान है यह आवश्यक नहीं कि हम उनके कार्यों का स्मरण करायें। तो प्रार्थना की क्या आवश्यकता है? गांधी का उत्तर है कि प्रार्थना को इस रूप में समझना ही निरर्थक है। प्रार्थना ईश्वर को कुछ कहना ईश्वर को कुछ स्मरण कराना नहीं है। प्रार्थना तो आत्म शक्ति जाग्रत करने का ढंग है यह अपने लिए की जाती है अपने में आस्था एवं निष्ठा बनाये रखने के लिए की जाती है। यह अपने को स्मरण कराना है कि उसकी इच्छा के बिना कुछ सम्भव नहीं अतः उसके प्रति पूर्ण आस्था के साथ कार्य करने का बल उत्पन करना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रार्थना आत्म-शुद्धता का ढंग है जिससे व्यक्ति ईश्वर के निकट आ जाता है। अतः प्रार्थना ही हममें ऐसा आत्म-बल उत्पन्न करने का माध्यम है जिससे हम अन्य के दुखों को भी समझ कर उसके भी भागीदार बन पाते हैं। गांधी के अनुसार प्रार्थना आत्मा की शक्ति है।
गांधी का कहना है कि धर्म की मांग है कि मनुष्य के अन्तर में धार्मिकता का जागरण हो। इसके लिए जैविक तथा इन्द्रिय-आश्रित प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखना अनिवार्य है ।
इसका अर्थ है कि इन्द्रिय-सुख तथा आत्म-तुष्टि के प्रयत्नों से एक प्रकार से विमुख हो जाना आवश्यक है। यह एक प्रकार का आत्मोत्सर्ग सन्यास ही है। किन्तु यह सन्यास पलायनवाद नहीं। गांधी के इस प्रकार के सन्यास का अर्थ अपनी आत्म-तुष्टि से विमुख होना है जीवन तथा जगत से भागना नहीं है। जीवन तथा समाज में रहते हुए व्यक्ति को सन्यासी बन जाने की अनुशंसा है। इसका अर्थ मात्र इतना ही है कि जो शक्ति आत्म-तृप्ति एवं सुखभोग में लग जाती है उसे उस ओर से खींचकर जन-कल्याण जीवनोत्थान एवं अच्छाई की ओर लगाना है। गांधी के अनुसार धार्मिक जीवन की यह अनिवार्यता है।
इसका तात्पर्य है कि गांधी का कहना है कि धर्म-मार्ग में लगे व्यक्ति के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी स्वार्थ पूर्ति वैयक्तिक उपलब्धियों आदि से सर्वथा उदासीन हो जाए । अपने साधन-साध्य दर्शन के अनुरूप तथा गीता के निष्काम कर्म को अपनी समझ के अनुरूप गांधी का कहना है कि इस प्रकार के सन्यास-रूप जीवन का अर्थ मात्र इतना ही है कि जीवन में हम अपने कर्त्तव्यों को करें। स्व से ऊपर उठ जनहित के कार्यों को करते चलें तथा इस चिन्ता से सर्वथा मुक्त रहें कि इन कार्यों का परिणाम क्या होगा इसका हमारे जीवन पर प्रभाव क्या पड़ेगा। गांधी गीता को अपना गुरु कहते हैं। अतः गीता के आदेशों का अनुशीलन उनके अपने जीवन के ढंगों का आदर्श है। गीता में अनुशंसित कर्म मार्ग उनके लिए भी अनुकरणीय है। अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गांधी के अनुसार जीवन में रहते हुए सन्यास का अर्थ है अन्य के शुभ के लिए स्वार्थ- रहित कर्म करना। इसमें निहित धार्मिक भावना यही है कि कर्मों के प्रभाव अथवा परिणाम हमारा प्रश्न ही नहीं है। वह ईश्वर की इच्छा है। अतः हमें उसके लिये चिन्तित होना निरर्थक है।
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com
© 2025 – सभी अधिकार सुरक्षित।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें