प्रश्न पूछना- मैं कौन हूँ?

 

प्रश्न पूछना- मैं कौन हूँ?


मैं कौन हूँ आत्म चिंतन करते हुए

मैं कौन हूँ आत्म चिंतन करते हुए

लेखक- बद्री लाल गुर्जर

भूमिका

मनुष्य के जीवन में कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जो समस्त अस्तित्व की जड़ को हिला देते हैं। मैं कौन हूँ? ऐसा ही एक शाश्वत प्रश्न है। यह केवल एक दार्शनिक या धार्मिक जिज्ञासा नहीं बल्कि आत्म-जागृति की कुंजी है। इस प्रश्न का उत्तर पाना जीवन के रहस्य को जानना है।

जब कोई व्यक्ति इस प्रश्न को सच्चे मन से पूछता है तब उसके भीतर एक कंपकंपी उठती है  एक खोज शुरू होती है। यह खोज बाहरी नहीं भीतर की होती है। यहीं से शुरू होता है अंतर्दर्शन का मार्ग

आत्म-प्रश्न की आवश्यकता

हम बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक अनेक प्रश्न पूछते हैं क्या खाऊँ?क्या पहनूँ? कौन-सा करियर चुनूँ? सफलता कैसे मिले?
परंतु शायद ही कभी हम यह पूछते हैं मैं कौन हूँ?

यह प्रश्न हमारे अस्तित्व के केंद्र को छूता है। यही कारण है कि इसे पूछने से डर भी लगता है। मनुष्य अपने बाहरी पहचान नाम, पेशा, परिवार, धर्म  के साथ इतना जुड़ जाता है कि जब यह प्रश्न उठता है तो उसके सारे नक़ाब गिरने लगते हैं।

बाहरी पहचान बनाम आंतरिक अस्तित्व

हम अपनी पहचान प्रायः बाहरी वस्तुओं में खोजते हैं-

मैं अध्यापक हूँ, मैं डॉक्टर हूँ, मैं हिंदू हूँ, मैं भारतीय हूँ।

लेकिन ये पहचानें अस्थायी हैं। समय और परिस्थिति बदलते ही ये बदल जाती हैं।
सच्चा  मैं वह नहीं है जो पद जाति या नाम से जुड़ा हो, बल्कि वह है जो इन सबके पीछे स्थिर और साक्षी है।

गौतम बुद्ध, आदि शंकराचार्य, रमण महर्षि, ओशो सभी ने कहा-

स्वयं को जानो, क्योंकि यही ज्ञान का प्रारंभ है।

मैं कौन हूँ? - प्रश्न की शक्ति

यह प्रश्न केवल शब्द नहीं एक आध्यात्मिक प्रयोग है।
जब कोई व्यक्ति बार-बार अपने भीतर यह प्रश्न गूँजाता है- मैं कौन हूँ? तब उसका मन धीरे-धीरे मौन होने लगता है।

यह प्रश्न तुम्हें विचारों की परतों के पार ले जाता है जहाँ केवल चेतना रह जाती है।
पहले मैं शरीर हूँ लगता है फिर मैं मन हूँ, फिर मैं विचार हूँ लेकिन अंततः एक क्षण आता है जब सब मिट जाता है और शेष रहता है केवल साक्षी भाव

आत्म-खोज की यात्रा

मैं कौन हूँ? की यात्रा किसी पुस्तक या गुरु से नहीं मिलती यह यात्रा भीतर उतरने की है।
पहला कदम है- अंतर्दर्शन
जब हम भीतर देखते हैं तो पाते हैं कि हमारे भीतर अनगिनत इच्छाएँ, भय, अपेक्षाएँ और स्मृतियाँ भरी हैं।
इन परतों को देखने का साहस ही आत्म-जागरूकता का आरंभ है।

1 देखने की कला

बिना निर्णय किए अपने विचारों और भावनाओं को देखना सीखो।
विचार आए मैं असफल हूँ तो उसे केवल देखो पहचानो पर उस पर विश्वास मत करो।

2 पहचान से दूरी

हम अक्सर अपने विचारों से ही मैं बन जाते हैं। लेकिन “मैं” विचार नहीं हूँ।
विचार आते-जाते हैं पर जो उन्हें देख रहा है वही सच्चा मैं है।

3 मौन में उतरना

जब मन स्थिर होता है तब आत्म-चेतना का अनुभव होता है।
वह अनुभव शब्दों से परे है न रूप है न नाम न सीमा। वही मैं हूँ।

दार्शनिक दृष्टिकोण

उपनिषदों में कहा गया है-

अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूँ।
यह कथन अहंकार का नहीं बल्कि एकत्व के अनुभव का है।

जब कोई व्यक्ति मैं कौन हूँ? के उत्तर में स्वयं को ब्रह्मांड का हिस्सा समझता है तब वह जान लेता है-

मैं अलग नहीं सब से जुड़ा हूँ।

भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

ज्ञानी व्यक्ति आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं देखता।
यह ज्ञान तब संभव है जब मनुष्य स्वयं को शरीर या विचार नहीं बल्कि चेतना के रूप में देखता है।

विज्ञान और आत्म-जागरूकता

आधुनिक मनोविज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि स्वयं को जानना मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
Carl Jung ने कहा था-

जो बाहर देखता है वह स्वप्न देखता है जो भीतर देखता है वह जागता है।

यह जागरण आत्म-जागरूकता का ही दूसरा नाम है।
जब व्यक्ति अपने भीतर के अंधेरे को पहचानता है तब वह उसे पार कर सकता है।
मैं कौन हूँ? पूछना मानसिक स्पष्टता और आत्म-संतुलन की दिशा में भी एक चिकित्सीय प्रक्रिया है।

ध्यान- आत्म-ज्ञान का मार्ग

ध्यान का मूल उद्देश्य किसी विचार को रोकना नहीं बल्कि उसे देखना है।
जब व्यक्ति ध्यान में बैठता है और अपने भीतर यह प्रश्न रखता है- मैं कौन हूँ? तो धीरे-धीरे परतें खुलने लगती हैं।

पहले वह शरीर का अनुभव करता है फिर मन का, फिर भावनाओं का, और अंत में वह उस शांत अनाम अस्तित्व से मिलता है, जो हमेशा उपस्थित था।

रमण महर्षि ने कहा था-

यदि तुम निरंतर यह पूछते रहो मैं कौन हूँ? तो एक दिन वह मैं जो शरीर से जुड़ा है मिट जाएगा और जो शुद्ध साक्षी है वह प्रकट होगा।

अहंकार और भ्रम की परतें

अहंकार मैं के झूठे रूप का निर्माण करता है।
यह कहता है- मैं श्रेष्ठ हूँ मैं बेहतर हूँ मेरा दुख सबसे बड़ा है।
यह अहंकार ही हमें आत्म-साक्षात्कार से दूर रखता है।

जब मैं कौन हूँ? की खोज में व्यक्ति भीतर झाँकता है तो उसे पता चलता है-
जो वह मैं समझता था वह केवल एक भूमिका थी अस्थायी और भ्रमात्मक।

सच्चा मैं निरहंकारी शांत और असीम है।

आत्म-साक्षात्कार का अनुभव

जब व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर पाता है, तो जीवन बदल जाता है।
अब वह दूसरों से तुलना नहीं करता शिकायत नहीं करता।
वह जान जाता है-

जो कुछ भी हो रहा है वह मुझसे होकर गुजर रहा है पर मैं उससे अलग हूँ।

यह अनुभव शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
यह एक गहन मौन है जहाँ सब कुछ विलीन हो जाता है और केवल मैं हूँ रह जाता है।

आधुनिक जीवन में मैं कौन हूँ? का महत्व

आज की तेज़ रफ़्तार दुनिया में लोग अपने अस्तित्व से कट गए हैं।
सोशल मीडिया पर दिखावा प्रतिस्पर्धा और बाहरी मान्यता की दौड़ में स्वयं खो गया है।
ऐसे में मैं कौन हूँ? पूछना आत्म-संतुलन की चाबी है।

यह प्रश्न व्यक्ति को भीतर की ओर मोड़ता है
जहाँ न तुलना है न ईर्ष्या केवल शांति और स्वीकृति है।
जब व्यक्ति अपने सच्चे स्व को जान लेता है तो जीवन सरल और अर्थपूर्ण बन जाता है।

आध्यात्मिक गुरु और मैं कौन हूँ?

श्री रमण महर्षि

उन्होंने केवल एक ही साधना बताई- स्व-प्रश्न (Self-Inquiry)।

अपने भीतर बार-बार पूछो- मैं कौन हूँ? जब तक कि प्रश्न पूछने वाला ही विलीन न हो जाए।

ओशो

ओशो कहते हैं-

जब तुम पूछते हो मैं कौन हूँ? तो कोई उत्तर मत खोजो बस प्रश्न को गहराई में जाने दो। वह प्रश्न ही उत्तर बन जाएगा।

गौतम बुद्ध

बुद्ध ने अनात्मा का सिद्धांत दिया-

कोई स्थायी मैं नहीं है सब कुछ परिवर्तनशील है।
जब यह अनुभव होता है तो व्यक्ति दुख से मुक्त हो जाता है।

मैं कौन हूँ? और मुक्ति

इस प्रश्न की गहराई में उतरने वाला व्यक्ति मुक्ति (मोक्ष) की ओर बढ़ता है।
जब मैं का भ्रम टूटता है तो शेष रहता है केवल शुद्ध अस्तित्व जो न जन्मा न मरा, केवल है।

यही मुक्ति है-

मैं न शरीर हूँ न मन हूँ न विचार हूँ मैं वह चेतना हूँ जो सब देख रही है।

निष्कर्ष

मैं कौन हूँ? प्रश्न से बड़ी कोई खोज नहीं।
यह प्रश्न जीवन के हर क्षेत्र में प्रकाश लाता है संबंधों में कार्य में और आत्मबोध में।
जो इस प्रश्न को हृदय से पूछता है वह बाहरी नहीं आंतरिक यात्रा पर निकलता है।

अंततः यह खोज वहीं समाप्त होती है जहाँ से शुरू हुई थी-

मैं प्रश्न नहीं उत्तर हूँ।
मैं सदा से था सदा रहूँगा शुद्ध चेतना के रूप में।

अंतिम संदेश (Call to Action)

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क्योंकि आत्म-प्रश्न की यह चिंगारी किसी और के भीतर भी जाग सकती है। 

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