मुक्ति का मार्ग योग
योग शब्द के साथ दो अर्थ जुड़े हुए हैं इसका एक अर्थ है मिलन तथा दूसरे अर्थ में यह एक विशेष प्रकार की साधना सूचित करता है। आत्मा की मुक्ति के लिए योग निम्नानुसार हैं-
ज्ञान-योग-
ज्ञान-योग इस अनुभूति पर आधृत है कि बन्धन का मूल कारण अज्ञान है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अज्ञान का अर्थ सत्य के स्वरूप का अज्ञान है सत्य-असत्य के भेद को समझ पाने की असमर्थता-अक्षमता है। यदि सत्य-असत्य में भेद नहीं कर पाना अज्ञान है तो इस भेद को समझ लेना ज्ञान है। सत्य-असत्य के भेद का ज्ञान ही विभिन्न नामों से निरूपित होता रहा है यही आत्म-ज्ञान है यही पूर्ण एकत्व का ज्ञान है यही ब्रह्म-ज्ञान है।
स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि इस प्रकार का ज्ञान केवल गुरु की बातें सुन कर या मात्र पुस्तकों के पढ़ने से प्राप्त नहीं हो सकता। इस ज्ञान का अपना महत्व है इसकी अपनी उपयोगिता है किन्तु यदि इन्हें उसी स्वर तक सीमित रखा जाय तो वे ज्ञान नहीं जानकारी मात्र ही रह जायेंगे। ज्ञान के लिये अध्ययन तथा गुरु से सीखी बातों में निहित वास्तविकता को अनुभूत करना अनिवार्य है। इसके लिये सीखे हुए सत्यों पर मनन एवं ध्यान अनिवार्य है। इसी कारण मनन, निविध्यासन, ध्यान आदि को ज्ञानोपार्जन का वास्तविक ज्ञान के ढंग का अनिवार्य अंग माना जाता है।
ध्यान केन्द्रित करने का कार्य कोई सरल कार्य नहीं है। इसके लिये आत्म के लिये अपनी पूर्ण शक्ति ध्यान के विषय पर केन्द्रित करने की आवश्यकता होती है। आत्म की शक्तियां शारीरिक क्रियाओं में ज्ञानेन्द्रियों तथा कामेन्द्रियों के द्वारा बर्बाद होती रहती है। अतः ध्यानस्थ होने का एक चरण यह भी है कि इन इन्द्रियों से अपनी शक्तियों को वापस करें उनका प्रत्याहरण करें। इसका अर्थ है कि ज्ञान-योग के लिये शरीर मन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण अनिवार्य है। हमारे सामान्य कार्य इन्द्रिय-तुष्टि के कार्य होते हैं इसका नियंत्रण अनिवार्य है। इन्द्रियों की मांगों का एक प्रकार से उन्मूलन करना पड़ता है शारीरिक आवश्यकताओं को महत्वहीन बना देना पड़ता है।
इते त्याग तथा सन्यास कहा जाता है। विवेकानन्द के अनुसार इस प्रकार का सन्यास ज्ञान-योग की एक आवश्यक कड़ी है। यह निवृत्ति का मार्ग है इसका अर्थ है स्वार्थमूलक एवं शरीर-आधृत सभी इच्छाओं का त्याग एवं मन शरीर तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण । इसी कारण इसे वैराग्य भी कहा जाता है। इस प्रकार के वैराग्य का विवेकानन्द के अनुसार एक भावात्मक पक्ष यह है कि इसकी प्रेरणा का आधार ब्रह्म-ज्ञान की प्रबल आकांक्षा है। यदि इस ज्ञान की आकांक्षा में त्याग का आधार नहीं है तो वह वस्तुतः सन्यास नहीं है। ज्ञान की आकांक्षा साधारण इच्छा जैसा कुछ नहीं है क्योंकि इसका लक्ष्य सांसारिक या भौतिक नहीं है बल्कि तात्विक है।
मन जब इस प्रकार के वैराग्य की स्थिति में आ जाय तब ध्यान साधना की जा सकती है। इसमें सभी शक्तियों को एकत्रित कर ज्ञान की दिशा में कार्यरत करना पड़ता है। अब प्रश्न यह उठता है कि ध्यान किस विषय पर लगाया जाय? विवेकानन्द कहते हैं कि ध्यान के प्रारम्भिक अभ्यास में किसी रूप या विषय का चयन हो सकता है जैसे हम विभिन्न ईश्वरीय गुणों को जानने का प्रयत्न कर सकते हैं। शनैः शनैः सतत् अभ्यास तथा उस दिशा में प्रगति से ध्यान की प्रक्रिया सघन होती जायगी तथा व्यक्ति पूर्ण ध्यान अथवा समाधि की अवस्था तक पहुंच सकता है। ज्ञान-योग की यह परिणति है इस अवस्था में विकर्षण की सारी प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं सभी भेद समाप्त हो जाते हैं यहां तक कि असीम समाधि की अवस्था में आत्म तथा ब्रह्म का भेद भी मिट जायगा। यही ज्ञान-योग का अन्तिम लक्ष्य है तथा पूर्ण ज्ञान है। इसी अवस्था में उसे पूर्ण एकत्त्व का ज्ञान हो जाता है जिस ज्ञान के बाद अज्ञान अन्तिम रूप से समाप्त हो जाता है। यही आत्मा का मोक्ष है। अतः ज्ञान-योग ज्ञान-मार्ग है जो ज्ञान को मोक्ष-साधन मानता है तथा ज्ञान-प्रक्रिया के मोक्ष-प्राप्ति की अनुशंसा करता है।
भक्ति मार्ग-
भक्ति-मार्ग भावनाओं को सघन बना कर ईश्वर को पा लेने का मार्ग है। विवेकानन्द का कहना है कि भावनाओं में ऐसी शक्ति होती है कि वे मनुष्य में निहित शक्तियों को जागरूक कर सक्रिय कर देती हैं। अतः यह सम्भावना तो स्पष्ट हो जाती है कि इन्हें प्रबलरूप में सक्रिय बनाने से ईश्वर की प्राप्ति भी सम्भव है। साधारण भावनाओं को प्रबल संवेगात्मक अनुभूतियों मे परिणत किया जा सकता है अतः साधारण प्रेम के भाव को परम भक्ति में परिणत किया जा सकता है ईश्वरीय प्रेम में परिणत किया जा सकता है। यही भक्ति-मार्ग का वैचारिक आधार है।
विवेकानन्द का कहना है कि प्रेम या भक्ति मानव-स्वभाव के सहज अंश हैं। अन्तर यही है कि प्रेम का सामान्य उदाहरणों में प्रेम का विषय सीमित वस्तुयें होती हैं जिनमें स्थायित्व नहीं है जो अन्ततः सत्य भी नहीं है। उनका कहना है कि इस प्रकार का प्रेम वस्तुतः शुद्ध प्रेम नहीं है बल्कि आकर्षण है आसक्ति है। भक्ति-मार्ग शुद्ध प्रेम का मार्ग है जिसमें जिससे प्रेम है वह कोई सीमित वस्तु नहीं बल्कि स्वयं परमेश्वर है। इस प्रकार के प्रेम में सर्वप्रेम निहित है हर वस्तु तथा हर तत्त्व के लिये प्रेम निहित है क्योंकि यह सब कुछ के एक मात्र आधार ईश्वर के प्रति प्रेम है। विवेकानन्द का कहना है कि भक्ति-मार्ग मात्र भक्ति से ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है क्योंकि यहां अनुशंसा यही है कि यदि प्रेम को हम इतना व्यापक तथा सघन बना सकें कि सब कुछ उसमें समाविष्ट हो जाय सब कुछ के लिये शुद्ध प्रेम जाग जाये तो यही ईश्वर-भक्ति है।
अतः ईश्वर-भक्ति के लक्ष्य तक पहुंचने की कड़ियों को भी स्पष्ट किया जा सकता है विवेकानन्द ऐसा कहते हैं। ये कड़ियां ईश्वरीय प्रेम के लक्ष्य तक पहुंचने के क्रमिक सोपान हैं।
प्रथम स्तर सामान्य पूजा प्रार्थना आराधना आदि का स्तर है। यह भक्ति-मार्ग का सरलतम स्तर है क्योंकि यह सभी व्यक्तियों के लिये सुलभ है। साधारण मनुष्य के लिये ईश्वर के सूक्ष्म रूपों को समझना कठिन है अतः वह स्थूल रूप में प्रारम्भ कर सकता है। इस स्तर पर मूर्तिपूजा ईश्वरीय प्रतीक के रूप में प्रतिमाओं का महत्त्व है। इस स्तर के लिये ऋषी-मुनियों देवपुरुषों पैगम्बरों आदि का महत्व है। इस प्रकार की बाह्य भक्ति का सबसे प्रचलित एवं स्पष्ट रूप मूर्तिपूजा है। इसी कारण विवेकानन्द के सम्प्रदाय में मूर्तिपूजा का समुचित स्थान है।
इसके बाद के स्तर में पूजा का रूप सघन तथा अधिक व्यापक हो जाता है। इस स्तर में ईश्वर-प्रार्थना ईश्वर का नाम लेना ईश्वरीय गुणों का कीर्तन ईश्वर-सम्बन्धी श्लोकों का भावपूर्ण उच्चारण आदि जीवन के अंश बन जाते हैं। इन बातों का अन्तर में महत्व एवं अर्थ स्पष्ट होने लगता है और यह चेतना जागती है कि जीवन की अर्थपूर्णता तो इन्हीं कार्यों में है।
तीसरे स्तर में इस प्रकार की प्रार्थना के स्थान पर शान्त-आन्तरिक प्रार्थना का आविर्भाव हो जाता है। विवेकानन्द का कहना है कि भक्त जब इस स्तर पर पहुंच जाता है तब उसके लिये ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ रह नहीं जाता। उसकी सारी भावनात्मक शक्ति ईश्वरीय अनुभूति से परिपूर्ण हो जाती है। तब अन्तिम स्तर में भक्त तथा भगवान का अन्तर भी समाप्त हो जाता है। भक्त ईश्वर में लीन हो जाता है। यह एक विशिष्ट आन्तरिक अनुभूति है ईश्वर-दर्शन है जहां भक्त सांसारिकता से सर्वथा ऊपर उठ जाता है तथा ईश्वर में लीन हो आत्म की परिणति पा लेता है। भक्ति-मार्ग का चरम लक्ष्य यही है। यह ईश्वर-प्राप्ति इस अर्थ में भी है क्योंकि यह अनिवार्य एकत्त्व की भावनात्मक अनुभूति है।
विवेकानन्द का कहना है कि भक्ति-मार्ग सर्वसुलभ तथा सर्व-प्रचलित मार्ग है। यह मानव-स्वभाव के सहज रूप में अनुरूप है। इसकी सरलता एवं सहजता का एक स्पष्ट कारण यह भी है कि इसके लिये किसी विशेष प्रकार की क्षमता या शक्ति की आवश्यकता नहीं होती और न इसके लिये किसी उपकरण की अनिवार्यता पर जोर दिया गया है। मानव के जीवन में भावना तथा संवेग का बड़ा प्रमुख स्थान है उसके इसी स्वाभाविक कृति पर आधृत यह मार्ग स्पष्टतः सरलतम प्रतीत होता है।
कर्म-मार्ग-
कर्म-मार्ग की मूल स्थापना को स्पष्ट करते हुए विवेकानंद कहते हैं कर्म-योग नैतिकता और धर्म की एक प्रणाली है जिसका उद्देश्य निःस्वार्थता और अच्छे कार्यों के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करना है। कर्म-योगी को किसी भी सिद्धांत में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। उसे यह नहीं पूछना चाहिए कि उसकी आत्मा क्या है न ही किसी आध्यात्मिक अटकल के बारे में सोचना चाहिए। उसे निःस्वार्थता का एहसास करने का अपना विशेष लक्ष्य मिला है और उसे इसे स्वयं ही पूरा करना है।
जैसा कि इस विवरण से स्पष्ट है विवेकानन्द के अनुसार कर्म-योग नीतिविषयक तथा धर्मशास्त्रीय एक निश्चित व्यवस्था है। इस व्यवस्था में मूलतः दो प्रकार की अनुशंसा है एक तो कुछ विशेष प्रकार के कर्म की अनुशंसा है जिन कर्मों को शुभ समझा जाता तथा दूसरी अनुशंसा है स्वार्थ से ऊपर उठने की। इस मार्ग की विशेषता यह है कि यह किसी प्रकार का तात्विक परिकल्पना में उलझने के लिये भी नहीं कहता। बस स्वार्थ से अपर उठ कुछ शास्त्र-सम्मत एवं कुछ नैतिक दृष्टि से शुभ कर्मों को करना ही कर्म-मार्ग है। यह कर्म पर बल देता है इसका अर्थ है कि यह पलायनवादी नहीं है तथा किसी प्रकार के सन्यास की अनुशंसा नहीं करता। कर्ममार्गी को जगत में रहना है शुभ-अशुभ दुख-क्लेश के मध्य रहना है क्योंकि कर्म तो जीवन में ही इस जगत में ही किये जा सकते हैं। तो उसे इनके मध्य रहकर सतत् अपने कर्मों को करते रहना है। पुनः कहा गया है कि उसे स्वार्थ से ऊपर उठकर कार्य करना है इसका अर्थ है कि उसके कर्म एक प्रकार से निष्काम ही होंगे। इसे स्पष्ट करते हुए विवेकानन्द कहते हैं कि कर्मों में लिप्तता नहीं होनी चाहिये। ऐसा नहीं होना चाहिये कि अब कर्म ही बन्धन हो जाय कर्म करने वाले पर लदकर बोझिल हो जाय। विवेकानन्द कहते हैं कि कर्ममार्गी को कर्मों का दास नहीं बनना है उसे कर्म करना है। उसे कर्मों को संचालित तथा नियंत्रित करना है। वस्तुतः हम कर्मों के दास इसी कारण बन जाते हैं कि हम अपने स्वार्थ-मूलक इच्छाओं की पूर्ति के लिये कर्म करते हैं हम इच्छाओं के दास बन कर कर्मों के दास बन जाते हैं। इसी कारण कर्ममार्गी के लिये इच्छाओं से ऊपर उठने की अनुशंसा की गयी है। विवेकानन्द गीता में अनुशंसित निष्काम कर्म से बड़े प्रभावित हैं। उसी प्रभाव के अनुरूप वे कहते हैं कि कर्मों को वास्तविक सार्थकता इस बात में है कि हम कर्मों के प्रतिदान के रूप में कुछ पाने की आशा न रखें । कर्मयोगी को सदा दाता के रूप में कर्म करना है वह अपने कर्मों का स्वतः उन्मुक्त रूप में अन्य के लिये तथा जगत के लिये दान करता है। यहां विचार यह है कि कर्ममार्गी का कर्म स्वार्थ से संचालित नहीं वह किसी इच्छित-वस्तु की प्राप्ति के लिये कर्म नहीं करता बल्कि उसके कर्मों की मूल प्रेरणा अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है अतः वह सामान्य वस्तुओं के भोग के लिये कर्म नहीं करता यही साधारण कर्म तथा कर्ममार्गी के कर्म में अन्तर है।
इसे स्पष्ट करने के प्रयत्न में विवेकानन्द गौतमबुद्ध के जीवन का उदाहरण लेते हैं जो निर्वाण प्राप्ति के बाद भी लम्बी अवधि तक कर्म करते रहे। उनके वे कर्म अपने लिये नहीं थे फिर भी स्वतः सम्पादित कर्म थे। कर्ममार्गी के लिये कर्म का प्रतिमान कुछ उसी प्रकार का कर्म है। उनके कर्म निष्काम कर्म के आदर्श के अनुरूप हैं। सब कुछ त्याग कर निकल आने के बाद भी उनका बाद का जीवन पलायनवादी नहीं रहा वे मनुष्यों के मध्य ही घूमते रहे उनके हित का कर्म करते रहे तथा प्रतिदानरूप में अपने लिये कुछ पाने का प्रश्न ही वहां नहीं था। यही कर्म का सर्वोच्च आदर्श है। इस आदर्श से विश्व का स्वरूप बदला ।
अब एक प्रश्न उठता है। इस प्रकार के कर्म से अमरता की प्राप्ति कैसे होती है?
विवेकानन्द इस प्रश्न का उत्तर बड़े सरल ढंग से देते हैं। अमरता की प्राप्ति का अर्थ है सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाना। इस बन्धन का मूलाधार मनुष्य की इच्छायें हैं उसके सांसारिक प्रयोजन हैं उसके शरीर रूप स्व की मांगों का पूरा करना है। इसी कारण वह स्व तथा 'शरीर में सीमित रहता है और यही बन्धन है। यदि वह सतत् स्वार्थ-रहित कर्म करता रहे यदि अभ्यास से निष्काम उसका सहज भाव बन जाय तो इसका अर्थ है कि वह स्व के बन्धन से ऊपर उठ गया है। इसी ऊपर उठने की चरम व्यापकता में उसे सब कुछ के एक रूप होने की अनुभूति होती रहेगी वह स्व और अन्य के भेद से ऊपर उठ जायगा और यही तो अमरता की प्राप्ति है।
राज-योग-
विवेकानन्द ने मोक्ष-मार्ग के रूप में एक और अन्य मार्ग का उल्लेख किया है जिसे सामान्यतः राजयोग कहा जाता है। इस मार्ग में अमरता की प्राप्ति के लिये मन तथा शरीर के पूर्ण नियंत्रण एवं अनुशासन की बात की जाती है। वैसे इस प्रकार की बात अन्य मार्गों में भी है विशेषतः ज्ञान-मार्ग में तो है ही। किन्तु यहां एक विशेष प्रकार के नियंत्रण की बात होती है इसमें शरीर और मन को नियंत्रित करने के लिये कुछ स्पष्ट विधियां अनुशंसित हैं विभिन्न आसन तथा प्रत्याहार के ढंग अनुशंसित हैं तथा मान्यता है कि इनके नियमतः कठोर पालन से ही चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार के मार्ग की नींव पंतञ्जलि के योगसूत्र में है। उसे ही विभिन्न रूपों में विकसित कर विभिन्न योगिक क्रियाओं का विवरण होता रहता है। इसके समर्थकों की विशिष्टता यही है कि वे इस मार्ग को मोक्ष प्राप्ति का सबसे निश्चित तथा सबसे तेजी से फलदायक मानते हैं। इसी कारण इसे वे योगों का राजा मानते हैं तथा इसे राजयोग कहते हैं। इसकी परिभाषा में ही कह दिया जाता है कि यह ईश्वर में लीन होने का मार्ग है। इसके पालन में एक प्रकार से बड़े ही कठोर अनुशासन की व्यवस्था है जिसमें किसी प्रकार की छूट के लिये स्थान नहीं है। कारण यह है कि इसे शीघ्र फलदायी माना जाता है अतः मार्ग के व्यवधानों को तथा रुकावट को हटाने के लिये निर्ममता अनिवार्य समझा जाता है।
यह मानसिक एवं शारीरिक अनुशासन का योग है। यह इस विश्वास पर आधृत है कि बन्धन का मूल कारण यही है कि मन तथा शरीर में निहित सामान्य प्रवृत्तियां हमें विचलित करती रहती हैं। इससे शक्ति का अपव्यय हो जाता है जिसके फलस्वरूप आत्मा भी शिथिल हो जाती है। शक्ति के इस अपव्यय को रोकना अनिवार्य है क्योंकि शक्ति के संचित रहने पर ही उसे ईश्वर की ओर प्रेरित किया जा सकता है। इसी कारण इस योग में मन तथा शरीर का नियंत्रण अनिवार्य हो जाता है।
लेखक- बद्री लाल गुर्जर
ब्लॉग: http://badrilal995.blogspot.com
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