कर्म एक संस्कृत शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ कर्म, कार्य, या क्रिया होता है। यह हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कर्म वैशेषिक दर्शन का तीसरा भाव पदार्थ है। द्रव्य के मूल गतिशील धर्मों का पारिभाषिक नाम ही कर्म है। कर्म का आधार द्रव्य है तथा यह मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। कर्म का निवास मूर्त द्रव्यों में ही होता है, इसका निवास विभु द्रव्यों में नहीं होता है, क्योंकि वे स्थान परिवर्तन से शून्य होते हैं। कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप है। लेकिन गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है। कर्म गुण शून्य होता है, क्योंकि गुण द्रव्य में होता है, कर्म में नहीं। कर्म के द्वारा एक द्रव्य का दूसरे द्रव्यों से संयोग भी होता है। इसलिए, कर्म को संयोग एवं विभाग का साक्षात् कारण माना गया है। कर्म वह है जो द्रव्य में समवेत रहता है, परन्तु गुण से शून्य होता है तथा संयोग एवं विभाग का साक्षात् कारण है। कर्म वह गतिशील व्यापार है जो पदार्थ को स्थानान्तर में पहुंचा देता है।
कर्म गुण से भिन्न है, क्योंकि गुण निष्क्रिय है जबकि कर्म सक्रिय। गुण स्थायी होता है जबकि कर्म क्षणिक। गुण को संयोग एवं विभाग का कारण नहीं माना गया है जबकि कर्म को संयोग एवं विभाग का कारण माना गया है। लेकिन, गुण एवं कर्म दोनों का निवास द्रव्य में होता है। द्रव्य के बिना गुण एवं कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है।
कर्म द्रव्य से भी भिन्न है, क्योंकि द्रव्य अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य सत्ता पर निर्भर नहीं करता है जबकि कर्म द्रव्याश्रित होता है। कर्म को पदार्थ इस कारण से कहा गया है कि इसका नामकरण सम्भव है तथा इसके बारे में सोचा जा सकता है।
कर्म की विशेषता-
कर्म क्षणिक होता है।
कर्म सभी द्रव्यों में नहीं पाया जाता है। असीमित द्रव्य कर्म रहित होते हैं।
कर्म केवल सीमित द्रव्यों में ही पाया जाता है।
कर्म से निश्चित द्रव्यों का निर्माण असम्भव है।
कर्म गुण से शून्य होता है।
कर्म द्रव्य का गतिशील रूप है।
प्रशस्तपाद ने कर्म के होने के लिए चार मुख्य उपाधियों को स्वीकार किया है-
गुरुत्व, तरलता, भावना एवं संयोग।
कर्म के भेद-कर्म पांच प्रकार के होते हैं-
(i) उत्क्षेपण-
इसके द्वारा वस्तु का संयोग ऊपर के प्रदेश से होता है, जैसे-पत्थर को आकाश की ओर फेंकना।
(ii) अवक्षेपण-
इसके द्वारा वस्तु का नीचे के प्रदेश से संयोग होता है, जैसे-मकान पर से पत्थर को नीचे की ओर फेंकना।
(iii) आकुंचन-
इस क्रिया के द्वारा वस्तु के अवयव एक- दूसरे के समीप आ जाते हैं, जैसे- हाथ पैर मोड़ना।
(iv) प्रसारण-
इस क्रिया के द्वारा वस्तु के अवयव एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं, जैसे-मुड़े हुए हाथ पैर को फैलाना।
(v) गमन-
अन्य सभी कर्म इसमें समाविष्ट हैं। उपर्युक्त चारों के अतिरिक्त सभी गत्यर्थक क्रियाएं इसके अन्तर्गत आती हैं।
कर्म के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति के कार्यों (चाहे वे शारीरिक, मानसिक या वाचिक हों) का प्रभाव होता है, और ये कार्य भविष्य में उस व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं। इस सिद्धांत के तहत, अच्छे कर्म सकारात्मक परिणाम लाते हैं, जबकि बुरे कर्म नकारात्मक परिणामों को जन्म देते हैं। कर्म का यह सिद्धांत जीवन के सभी पहलुओं में लागू होता है, और यह माना जाता है कि किसी व्यक्ति के कर्म उसके जीवन में सुख-दुख का निर्धारण करते हैं।
इसके अलावा, कर्म का यह भी मतलब है कि व्यक्ति की वर्तमान स्थिति उसके पिछले कर्मों का परिणाम है, और उसके भविष्य की स्थिति उसके वर्तमान कर्मों पर निर्भर करती है। इस प्रकार, कर्म व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा, नैतिकता और जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण के साथ जुड़ा हुआ है।
कर्म फल का अर्थ है किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कर्मों का परिणाम जो कर्म हम अपने जीवन में करते हैं, उनका प्रभाव हमारे भविष्य पर पड़ता है। यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक हो सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे कर्म अच्छे थे या बुरे।
1.अच्छे कर्म का फल-
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं, जैसे दूसरों की मदद करना, सत्य बोलना, और नैतिक जीवन जीना, तो उसे सुख, शांति और सफलता जैसी सकारात्मक चीजों का अनुभव हो सकता है।
2. बुरे कर्म का फल-
यदि व्यक्ति ने बुरे कर्म किए हैं, जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, या दूसरों को नुकसान पहुँचाना, तो उसे दुःख, असफलता, और कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
3. कर्म फल की अवधारणा-
कर्म फल की यह अवधारणा केवल इस जीवन तक ही सीमित नहीं है; यह अगले जीवन पर भी प्रभाव डाल सकती है। इस विचार के अनुसार, व्यक्ति का अगला जन्म उसके पिछले कर्मों के आधार पर निर्धारित होता है।
4. समय-
कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता; कभी-कभी यह समय लेता है। कुछ कर्मों का फल इस जीवन में मिलता है, जबकि कुछ का अगले जीवन में।
अतः कर्म फल का यह सिद्धांत हमें जीवन में नैतिक और सही तरीके से जीने के लिए प्रेरित करता है, क्योंकि यह हमें हमारे कार्यों के प्रति जिम्मेदार बनाता है।
मानव के सद्कर्म उसे नैतिकता, करुणा और परोपकार की दिशा में ले जाते हैं। सद्कर्मों से व्यक्ति न केवल स्वयं के जीवन में शांति और संतुलन प्राप्त करता है, बल्कि समाज को भी सकारात्मक दिशा में अग्रसर करता है। सद्कर्मों का मुख्य उद्देश्य दूसरों की भलाई करना और सत्य, अहिंसा, दया, और प्रेम जैसे मूल्यों को अपनाना होता है।
कर्म के सिद्धांत का उद्देश्य व्यक्ति को यह सिखाता है कि उसे अपने कर्मों के प्रति जागरूक रहना चाहिए क्योंकि उसका हर कार्य भविष्य में उसके जीवन को प्रभावित करेगा। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों के द्वारा ही अपने जीवन की दिशा तय करता है।
1 पर हितकारी कार्य-
दूसरों की मदद करना जैसे दान देना ज़रूरतमंदों की सहायता करना और समाज की भलाई के लिए कार्य करना।
2 सत्यनिष्ठा-
सत्य के मार्ग पर चलना और अपने जीवन में ईमानदारी और नैतिकता को बनाए रखना।
3 अहिंसा-
किसी भी प्रकार की हिंसा से दूर रहना और शांति को बढ़ावा देना।
4 करुणा और दया-
दूसरों के दुःख को समझना और उनके लिए सहानुभूति और मदद की भावना रखना।
5 संयम और आत्मनियंत्रण-
अपने क्रोध, लालच, और अन्य नकारात्मक भावनाओं पर नियंत्रण रखना।
मानव के सद्कर्म उसे नैतिकता, करुणा और परोपकार की दिशा में ले जाते हैं। सद्कर्मों से व्यक्ति न केवल स्वयं के जीवन में शांति और संतुलन प्राप्त करता है, बल्कि समाज को भी सकारात्मक दिशा में अग्रसर करता है।
सद्कर्मों का मुख्य उद्देश्य दूसरों की भलाई करना और सत्य, अहिंसा, दया, और प्रेम जैसे मूल्यों को अपनाना होता है।
कर्म के सिद्धांत का उद्देश्य व्यक्ति को यह सिखाता है कि उसे अपने कर्मों के प्रति जागरूक रहना चाहिए क्योंकि उसका हर कार्य भविष्य में उसके जीवन को प्रभावित करेगा।
इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों के द्वारा ही अपने जीवन की दिशा तय करता है
बद्री लाल गुर्जर
बनेडिया चारणान
(टोंक)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें